Tuesday 7 August 2012

अरुणाकर पाण्डेय की कविताएं



दिल्ली विश्वविद्यालय मोती लाल नेहरू कॉलेज में हिन्दी के अध्यापक युवा रचनाकार अरुणाकर पाण्डेय की कविताएं एवं आलोचनाएँ  विभिन्न पत्रिकाओं मे समय समय पर प्रकाशित होती रहती हैं। साहित्यिक परिवार का होने के कारण साहित्य एवं संस्कृति से इनका सहज जुड़ाव है। जागरूक युवा पीढ़ी की व्यावहारिक कल्पना,संवेदना और नये बिम्बों का दर्शनीय प्रयोग इनकी कविताओं मे दिखाई देता है। 



तो लीजिये आज की पोस्ट में  प्रस्तुत हैं अरुणाकर की कुछ चुनिन्दा रचनाएँ--


अंतरण


खिड़की के शीशे पर सिर टिकाये
उदास आँखों से आसमान में खोजता चाँद-सितारे
चुपचाप वह रात की यात्रा करते हुए
स्वयं एक चौराहे पर लगी प्रतिमा जैसा बन जाता है

उन्हें ना पाकर भी वह इस उम्मीद में खड़ा रहने का फ़ैसला
करता है कि जब थककर गिरे तो नींद उसे अपने में विलीन कर लेगी
लेकिन ऐसा कुछ नहीं घटता क्योंकि नींद  
नदी और आकाश सरीखी नहीं रह गयी है
और ना ही आती है किसी बटन के दबाने से

ऐसे में उसे खिड़की से
दिखती है नीचे की काली और चौड़ी सुनसान सड़क
वह सड़क नृत्य करती हुयी है
और उसकी थिरकन में कोई वाहन नहीं आता
आते हैं बारी-बारी से चीखते-बिलखते शब्द
जिनके कोई अर्थ नहीं होते
उनकी लंबी कतार कहाँ से कहाँ तक की यात्रा करती है
यह केवल सड़क जानती है
वे सड़क के बीच के नए ऊँचे लैम्प पोस्टों को ऐसे पार करते हैं कि वे
नदी पर बने कई किलोमीटर लंबे किसी अमरीकी-यूरोपीय पुल को पार कर रहे हों
अर्थहीन शब्द अंतहीन पुलों को पार करते जाते हैं
और इस प्रक्रिया में खिड़की पर खड़े उस लड़के को
यह समझ आता है कि
नदी नींद से लापता सड़क हो गयी है
वह यह भी समझ पाता है कि रात को लैम्प-पोस्ट का प्रकाश जिनमें अर्थहीन शब्द चीखते हैं
और उसके बीतने के साथ जो उजाला आता है
एक नैसर्गिक भ्रम है

वह शहर बदलना चाहता है
लेकिन उसके घर की नीचे वाली लापता सड़क पर
रात बीतने के बावजूद
कोई वाहन मौजूद नहीं है

पेड़ का संगीत                                                                       

पेड़ की उम्र जानने के लिए
उसे काटना ज़रूरी है
ताकि उसके भीतर के वृत्तों को गिनकर
हम लगा सकें उसकी सटीक कीमत
शायद पेड़ यह नहीं जानते


मित्र के सिगरेट के धुएँ ने
जब छुआ मंडी हाउस के उस पेड़ को
तो वह नींद से जागकर
ढलती शाम का जायज़ा लेने लगा
सुनाई पड़ा उसका संगीत

उसमें छिपे थे
पिछले कई बरसों के
रंग, सुर, ताल, रेखाएँ , शब्द व दृश्य
कह चुका था वह ऐसी कहानी
जिसे सुना सकता है
केवल कोई बूढ़ा कैसेनोवा
बस चाहिए होता है कोई नया कलाकार

उस पेड़ का संगीत सुनने और ना सुनने के बीच
मानवता की अँधेरी गलियाँ रहती हैं
जिनमें खोई हुयी कला को समझ लेना
मुश्किल में डाल सकता है मित्र को
क्योंकि खून वहाँ रंग है
हड्डी वाद्ययंत्र
चीख शब्द
चीरे के निशान हैं रेखाएँ
और अँधेरा
स्वयं में सौंदर्य की संभावना लिए एक अंतहीन दृश्य


मरे हुए मनुष्य के
मन और शरीर में यदि भर दिया जाए
पेड़ का यह संगीत 
तो उसकी भाषाएँ खत्म हो जायेंगी
पेड़ यह अच्छी तरह जानता है
फिर भी मनुष्य को नहीं कलाकार को सुना पाता है अपना संगीत
कलाकार और मनुष्य के इस अंतर्विरोध में
पेड़ से बिलकुल अलग यह प्राकृतिक अन्याय है कि
दोनों को ही कटने पर कोई वृत्त नहीं मिलता

इससे पहले कि मैं मित्र से बाँट लूँ
पेड़ का यह संगीत
उसे ले जाता है  
शब्दों या चित्रों का सरल मोबाईल सन्देश
इतनी आगे कि
पेड़ छूट जाता है बहुत पीछे
शायद हम अब भी उसकी सही उम्र नहीं जान सकते 

प्रह्लाद और भोजन


हमेशा की तरह
ये पंक्तियाँ सहस्त्राब्दी के महानायक के लिए नहीं
क्योंकि इनमें वे अप्रस्तुत विधान की तरह मौजूद हैं
जो प्रस्तुत हो सकता है
वह प्रह्लाद है
बम्बई का वह टैक्सी ड्राइवर
जिसे पीटकर शायद हो गया है नवनिर्माण
लेकिन दिल्ली का एक छात्र
जो भोजन के लिए बैठा है आर्ट्स फैकल्टी कैंटीन में
असमंजसता का है शिकार
कि वह क्या खाए
पाव-भाजी बीस रूपये एक प्लेट  
चाउमीन बीस रूपये एक प्लेट
आलू-पूड़ी दस रूपये एक प्लेट
छोले या राजमा चावल भी दस रूपये प्लेट

महाराष्ट्र नवनिर्माण की दृष्टि से देखें तो
मराठी पाव–भाजी चीनी चाउमीन से बराबरी की
प्रतिस्पर्धा कर रहा है
उस कैंटीन में
और उत्तर भारतीय  व्यंजनों
की अस्मिता हो गयी है आधी
ठीक देश की राजधानी में

आप चाहे तो इसे जातीय चोट मानकर
कह सकते हैं कि
उत्तर भारतीय भोजन करने वालों की संख्या ज्यादा है
या फिर सोच सकते हैं कि इस भूल में नप सकते हैं
पराड़कर, अम्बेडकर, माओ, बुद्ध, कन्फ्यूशियस तथा और भी
बहुत से वे लोग
जो प्रह्लाद की रोटी बना सकते थे !!

टूटी-फूटी हड्डियाँ और टैक्सी लेकर
प्रह्लाद वोट देने नहीं जाएगा
उसकी लड़ाई लड़ रहे हैं
सहस्त्राब्दी के महानायक क्षेत्रीय नवनिर्माताओं से
कुछ साल पहले भी
बरसात से जलमग्न हुयी बम्बई में
शायद डूबे थे सभी उत्तर भारतीय ही
जब बकौल एक सांसद महानायक नहीं कर पाए थे स्नान

ऐसे में संवेदनशील छात्र
कुछ भी खाए
स्वाद एक ही आएगा

वो जो दिखती है



एक औरत के वजूद को
मैं देखता हूँ कि
बालकनी के आईने में
कई बार अपना चेहरा देखते हुए
वो अक्सर क्लिपों में टांगकर
कपड़ों को सुखाने के लिए फैलाती है
इस तरह क्लिप, कपड़े, आईने और चेहरे में
सदियों से तड़पता रिश्ता पढ़ लेता हूँ मैं

दुबारा ठीक उसी जगह देखने पर
कपड़े और औरत कहीं खो जाते हैं
दिखती है एक चिड़िया
जो बैठी है क्लिप की तार पर
इससे फिर पता लगता है कि
सूखे कपड़े और औरत के बीच रिश्ता गहनतम है
और यह भी कि क्लिप और चिड़िया
का संबंध अस्थिरता का है
क्योंकि क्लिप में चिड़िया नहीं कपड़े सूखते हैं

चिड़िया को आईना नहीं चाहिए
उसे बैठने के लिए चाहिए एक ठौर
जो उस जगह क्लिप है
चिड़िया को हम क्लिप में नहीं टांग सकते
लेकिन अक्स को आईने में टांग सकते हैं

सदियों पुराने इस रिश्ते में बच गयी है औरत
जो रोज़ क्लिप में कपड़े टांगने आती है
इस कविता में कोई और
नहीं रहता 

प्रस्तुति-यशवन्त माथुर 

सहयोग-अंजू शर्मा 

12 comments:

  1. manviy samvednao ko naye tareeke se dekhti hui khubsurat kavitayein ........aabhar

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  2. बेहतरीन......
    उत्कृष्ट कविताएं,,,
    साझा करने का शुक्रिया यशवंत,अंजू जी.
    सस्नेह
    अनु

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  3. वाक़ई सारी कविताएँ बहुत सुंदर हैं ..खास कर "पेड़ का संगीत"
    कवि को बधाई और आपका शुक्रिया ..!

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  4. बहुत ही बेहतरीन कविताये है..
    लाजवाब...
    जन्माष्टमी की शुभकामनाये...
    :-)

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  5. कान्हा जी के जन्मदिवस की हार्दिक बधाइयां ..
    हम सभी के जीवन में कृष्ण जी का आशीर्वाद सदा रहे...
    जय श्री कृष्ण ..

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  6. उत्कृष्ट कविताएं....

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  7. जीवन-से बहुत गहरे जुड़ी सभी रचनाएँ बहुत उत्कृष्ट है. अरुणाकर जी को बधाई.

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  8. बेहतरीन कवितायें

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  9. Arunakar....cant believe that this is you...dropped msg on your Facebook profile..if you catch time than pls. give me a call....missing our school days..Manish Singh from Gole Market

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  10. Sach. Aisi sachai jo kisi ko dikhayi nahi deti,ye dard keval mahsus ke ja sakti.jise aapne bahut acchey se apne kavi mann ke bahvnavo ka pradarshit kiya hai,aap ko hardik subhkamnaye.

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