Tuesday, 14 February 2012

ढाई आखर प्रेम के


प्रिय मित्रों, 


प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाई |

राजा प्रजा जिस रुचे, सीस देय ले जाई ||

  संत कबीर ने कहा है कि प्रेम को न तो खेत में उत्पन्न किया जा सकता है और न ही यह बाज़ार में मोल बिकता है, प्रेम में कोई छोटा या बड़ा नहीं होता, स्वत्व को त्याग कर ही प्रेम को पाया जा सकता है!  ऐसे प्रेम को अपने शब्दों के द्वारा बहुत ख़ूबसूरती से चित्रित किया है हमारे कुछ साथियों ने! हम आभारी हैं सभी के, जिन्होंने इतने कम समय में अपनी सुंदर रचनाएँ हम तक पहुंचाई! इस वासंती रुत में हर ओर केवल प्रेम ही प्रेम है! आप भी सुंदर प्रेम कविताओं का आनंद उठाइए ! 


हम इस ब्लॉग का पहला भाग ढाई आखर प्रेम के -1 प्रस्तुत कर रहें हैं, इस उम्मीद के साथ कि प्रेम के इस रंग में आप भी सराबोर हो जायेंगे .................... 



इस भाग में जिन कवियों की कवितायेँ प्राप्ति के आधार पर सम्मिलित की गयी हैं उनके नाम इस प्रकार हैं......



१. मुकुल सरल
२. पंकज त्रिवेदी 
३. विमलेन्दु द्विवेदी
४. प्रवेश सोनी 
५. निधि टंडन
६. तूलिका शर्मा
७. राघव विवेक पंडित
८. सुशीला शिवरान
९. वंदना गुप्ता (वंदना केडिया)
१०. केतकी जानी
११. गुलज़ार हुसैन
१२. आशुतोष चन्दन 
१३. सुधा उपाध्याय 
१४. नीरज द्विवेदी
१५. सुंदर सृजक
१६. प्रियंका जैन
१७. कोमल सोनी
१८. सुमन तिवारी
१९. युवराज अग्रवाल 
२०. रंजना भाटिया 
२१. निरुपमा सिंह 
२२. प्रीति सुराणा
२३. कुमारेन्द्र सिंह सेंगर 
२४. प्रवीण कुमार श्रीवास्तव 
२५. सचिन पी पुरवार



मुकुल सरल

rose

बचा हुआ है प्रेम

सुबह-सुबह 
रची प्रेम कविता
दोपहर होते-होते
अवसाद में डूब गया
शाम के साथ
गहरा गया सन्नाटा
और रात आई तो
डर ने अपने डैने फैला लिए
तकियों के बीच
खिंच गईं दीवारें
और एक बदन
दो करवट सो गया
सुबह-सुबह 
फिर रची प्रेम कविता!
अजीब है!
सूखता ही नहीं
प्रेम का समंदर
कोई कितने भी
अग्निबाण चलाए
मैं रच रहा हूं कविता
और वह साज़िशें...
साज़िशें...सुबह के ख़िलाफ़
कविता...साज़िशों के ख़िलाफ़
हर दिन/ हर रात
सदियों से चला आ रहा है
यही सिलसिला...
रची जा रही हैं साज़िशें
बचा हुआ है प्रेम
बची हुई है कविता
बस मुझे
इंतज़ार है
और कोशिश भी
कि एक बदन
एक करवट हो जाए







 

 
पंकज त्रिवेदी
 
rose1


प्रिय दोस्त,
तुम्हारा न होना,
तुम्हारी मौजूदगी का गवाह बनाता हैं
हर पल...
तुम चाहे कहीं भी हो, रहो... खुश रहो... !
दोस्ती का अर्थ अपेक्षा या अधिकार नहीं
यह तो जनता ही हूँ..
मगर -
दोस्ती का अर्थ यह भी हैं कि
अपने दोस्तों के कंधे
दुःख-दर्द को सहन करने के लिए
अपने सर को विश्राम दे सकता हैं
अगर कोई साथ देता भी हैं तो अलग बात हैं मगर
साथ देने के भी तरीके होते हैं...
जरूरतों पर बने रिश्तें अपनी मंज़िल से
भटकने में ही साथ देता है.....
दोस्त,
जब कोई अपना बनाकर साथ निभाता हैं तो
उनकी मर्यादाओं को नज़रंदाज़ करते हुए
साथ निभाना चाहिए..
ये दोस्ती का रिश्ता बड़ा अजीब होता हैं न ?
न छोड़ सकते हैं और न कुछ कह सकते हैं
क्योंकि-
कहें तो भी क्या कहें और किसे कहें?
दोस्ती की मिसाल पर यह दुनिया प्रेरित हैं
मगर एक पल रूककर सोचना होगा
दोस्त के फैले हुए हाथों को 'मांगना' नहीं कहते
हो सकता हैं - उन खुले हाथों की लकीरें
सिर्फ तुम्हारे लिए ही हों...!




 
विमलेन्दु द्विवेदी
 
butter4


इच्छाओं के अनन्त में 
 

तुम पृथ्वी हो जाओ
तो मैं तुम्हारा चन्द्रमा बन कर
घूमता रहूँ अपनी कक्षा में.
तुम तितली हो जाओ
तो मैं खिला करूँ फूल बन कर.
तुम नदी हो जाओ
तो एक चट्टान की तरह
रास्ते में पड़ा
धीर धीरे कटता रहूँ तुम्हारी धार से.
तुम सूरज की तरह निकलो
तो मैं बर्फ होकर
पिघलता रहूँ तुम्हारी आँच से.
तुम आग हो जाओ
तो मैं
सूखी लकड़ी होकर इकट्ठा हो जाता हूँ.
तुम गौरैया बन जाओ
तो मैं
आँगन में दाना होकर बिखर जाता हूँ.
इच्छाओं के इस अनन्त से
अन्ततः मैं तुम्हें मुक्त करना चाहता हूँ..
यही मेरा आज का राजनैतिक बयान है.
 





प्रवेश  सोनी



red balloon


कितना कठिन है
कितना कठिन है कहना ,
की प्यार  है  ....
आसान भी नहीं होता स्वीकारना
तुम्हारी आँखों के ,
दुधिया उजास में जब पढ़ती हू ,
तुम्हारे मन के स्वप्निल शब्द ,
सच मानो ..
खुद को खो देने का अहसास होता है
मौन द्रष्टि   ,
कितने सवाल तलब करती  है  ..
पर चाह कर भी नहीं होता ,
अधरों पर स्फुटन ..
जेसे शब्दों पर
खींच गई हो कोई रेखा ...
यह भी तो सच हे मगर ,
जब तुम नहीं होते हो पास
खुद से खूब बतियाते  है  शब्द ..
जाने क्यों मुमकिन सा नहीं लगता
यह समझ पाना
"ढाई आखर " कहना
जबां को भारी क्यों लगता
है
..
जबकि उन्हें सुन कर मन
कितना हल्का हो जाता है ...!!




  निधि टंडन







अहं की दीवार

तुम आश्चर्य करते हो
कि
तुम्हारे इतना कहने-सुनने....
लड़ने-झगड़ने के बाद भी.....
मुझपे कोई फर्क क्यूँ नहीं पड़ता है
प्रेम का रंग फीका क्यूँ नहीं पड़ता है .
क्यूँ मैं कभी कुछ नहीं कहती तुमसे ?
क्यूँ मैं कभी खफा नहीं होती तुमसे ?
किसी दीवार पे कुछ डालो...फेंको
तो चीज़ या आवाज़ लौट के आती है
पर....
मैंने तो तेरे प्यार में
अपने अहं की
सारी दीवारें गिरा दी हैं .
तेरा सब कहा....किया ....
निकल जाता है आर-पार.
प्रेम से परिपूर्ण मेरे इस अस्तित्व में
क्यूंकि ,
बस,प्यार को स्वीकार करने की क्षमता शेष है .



 
तूलिका शर्मा



अभीष्ट हो....ईष्ट हो
प्रेम के पुष्प समर्पित हैं तुम्हें
स्मृतियाँ तुम्हारी प्रदक्षिणा करती हैं
नित अश्रु-जल से आचमन करती हूँ
माटी से तन को.. दिए सा गढ़ती हूँ
नेह की बाती प्रज्वलित है हृदय की अग्नि से
आकाश मे समाहित समस्त ऊर्जा को समेट
श्वास दर श्वास आती जाती प्राण वायु की लय पर
सिमरती हूँ सिर्फ़ तुम्हारा नाम.............
ये मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश
मेरे पंचतत्वों का अर्घ्य समर्पित है तुम्हे
स्वीकार लेना....क्योंकि मैं प्रतीक्षा मे नहीं हूँ
..................................प्रार्थना में हूँ ||


 
राघव विवेक पंडित

butter3


मेरी प्रेयसी 
 

मेरी देहलीज़ तेरी
महक पहचानती है,
मेरे दरवाज़े की चौखट
तेरा स्पर्श पहचानती है,
मेरे आँगन की तुलसी भी
तेरी आहट पहचानती है,
मेरे आँगन की मिटटी भी
तेरी खुशबू जानती है,
तुम जब मेरे आँगन में
इठलाती चलती हो तो
तुम्हारी  पायल की झनक झनक
के संगीत से मेरे
घर का हर कोना
झूम उठता है,
मेरा शयन कक्ष तुम्हारे
जिस्म की
महक पहचानता है,
तुम्हारे हर स्पर्श को वो जानता है,
तुम हो मेरी स्वामिनी, मेरी दामिनी,
मेरी संगिनी, मेरी प्राणप्यारी,
लक्ष्मी रुपेण,
मेरी गृहलक्ष्मी
मेरी धर्मपत्नी







सुशीला शिवराण









प्रीत

मन पखेरू
उड़ चला
पंख प्रीत के
प्रीत ही ध्येय
प्रीत अमिय !
बढ़ चला
हौंसला प्रीत का
मिटाने  फ़ासला
प्रीत ही संबल
अवलंबन भी प्रीत ही !
हार-जीत
जय-पराजय
सोचती कहाँ है प्रीत
लुटा कर सब
पा लेती है
पग-पग पगती प्रीत !
प्रिय से बात
प्रिय का साथ
प्रिय का स्नेह
प्रिय का हाथ
आया हाथ
महक उठी प्रीत !
थोड़ा प्यार
थोड़ी मनुहार
थोड़ी जिद्द
थोड़ा दुलार
बस यही जीवन-पूँजी
जिसे लुटाकर
पाना है सार प्रीत का
प्रश्न कहाँ हार-जीत का !







वंदना गुप्ता (वंदना केडिया)


तेरे आने से पहले और...
जाने के बाद का साथ भला लगता है.
यादों में चेहरा तेरा ...
ज्यादा सुंदर लगता है..
जो कहदो रूठ कर तो कोई बात नहीं..
न बोलो तो जाने क्यूँ बुरा लगता है...
साथ तेरा बीत जो गया ..
वो भी सुंदर लगता है..
आने वाले कल का सपना...
भी प्यारा लगता है ..
अब इस पल तू बैठा है पहलू में...
मैं फिर भी सपनो में हूँ लगता है...
ईश नहीं तो उससे कम भी नहीं...
सच राम से बड़ा राम का नाम लगता है..





केतकी जानी


कोई है.........जो
हरदम, हरपल मेरे साथ होता है,
अनदेखा.......अनसुना......सा वो ...
सिर्फ मेरे ही लिए बना है,
मुझे सुनने के लिए बेताब रहता है,
मेरी एक झलक देखने तरसता है,
मेरे साथ पाने  किसी भी हद तक जा सकता है,
दुआ के लिए उसके हाथ सिर्फ मेरे ही लिए उठते है,
  और मे........करती हूँ उसे प्यार जैसे की रेगिस्तान की प्यास..........






गुलज़ार हुसैन







प्यार और तलवार




उस शाम
आकाश साफ़ नहीं था
नहीं उड़ रही थी कोई चिड़िया चहचहाती हुई
बेमौसम भरे बादलों के बीच से रह रह कर चमक उठती थी बिजली
और घरघराती तेज हवा के झोंकों से बिखर रहे थे तुम्हारे केश
उस शाम
तुम्हारा हाथ थामे मैं
गाँव से सटकर बहती नदी के बाँध पर खड़ा था
हम दोनों के सिर पर झूम रही थी गुलमोहर की डालियाँ
दूर तट पर रुकी नाव से हड़बड़ी में लोग पगडंडियों की तरफ भाग रहे थे
फिर अचानक चुपके से घिर आई थी रात और पता ही नहीं चला था
झिंगुरों की आवाज़ के साथ कान के पास तक फ़ैल गया था सन्नाटा
उस शाम
दूर कहीं से उभरा शोर धीरे-धीरे तेज़ होता जा रहा था
लग रहा था कि नदी में बाढ़ आ गयी है
शोर लगातार हमारी ओर चला आ रहा था
अचानक तुमने जोर से मुझे हाथ पकड़ कर
गुलमोहर के विशाल तने की ओट में खींच लिया
मैंने महसूस किया कि तुम गुलमोहर की पत्तियों सी थरथर काँप रही थी
उस शाम
लोगों का शोर और पैरों की धमक के सामने
बिजली कड़कने की आवाज़ धीमी पड़ गयी थी
अचानक बिजली की तेज़ रौशनी में नहा गयी उग्र भीड़
हम दोनों ने एक साथ देखा
लोगों के हाथ में चमकती नंगी तलवारें और लाठियां
तभी भीड़ में से किसी ने कहा -
चलों भाइयों वे दोनों इधर नहीं हैं
उस शाम
बहुत तेज़ बारिश आई
हम दोनों बहुत देर तक डरे ,सहमे और गीले
गुलमोहर के तने से चिपके रहे
एक दूसरे का हाथ थामे







आशुतोष चन्दन








इक्कीसवीं सदी में प्रेम



आज बहुत दिनों बाद
नहीं, दिनों नहीं
सालों बाद गुज़रा उस मोहल्ले से
हमारे मोहल्ले से
तुम्हें पता है
आज भी खेल रहे थे कुछ बच्चे
मज़ार से सटे उसी पेड़ के नीचे
फूलों की माला बना कर
चम्पा के फूल भी थे
देखते ही याद आ गयीं
तुम्हारी छोटी-छोटी
गुलाबी हथेलियाँ
और उन मासूम हथेलियों में
अलग से दिखते
दहकते लाल निशान
जो मिले थे तुम्हें
मेरा हाथ पकड़ चलने के एवज़ में
बाभनों की लड़की
नीची जात के लड़के के हाथ छुए?
ऐसा होने से पहले ही
धरती फट जानी थी
गंगा मइया वापस सरग चली जानी थी
पर ऐसा कुछ न हुआ
अलबत्ता मेरी पीठ की चमड़ी उधड़ गयी
और गंगा मइया रस्ता बदल
रात भर बहती रहीं अम्मा की आँखों  से
वैसे जात की लकीर पीट कर भी
अनचाहे ही
सबने मुझे और तुम्हें
उस दिन एक जैसा बना दिया
तुम्हारी हथेलियों और मेरी पीठ पर
हमारे एक होने की इबारत
लिख दी थी सबने
एक ही रंग से
आज उन बच्चों के हाथों में
चम्पा के फूल देख
मन किया पूछ लूं उनकी जात
लेकिन ये ख़याल आते ही झटक दिया सिर
उनकी  जात पूछते ही
अलग कर देता मैं उन्हें
एक-दूसरे के जड़ों से
और फिर एक हल्का-सा झोंका भी
उनके रिश्ते के दरख़्त को उखाड़  डालता
छुटपन में ही
शायद फिर उनमें से किसी की
हथेलियों या पीठ पर
उभर आयें चम्पा के फूल
उम्र भर के लिए
हाँ एक और बात हुई
जो कुछ पुरानी जैसी भी है
और कुछ नयी-सी भी
मोहल्ले का चक्कर लगाते-लगाते
चला गया था मदरसे की तरफ
हाँ उसी ओर जिधर प्रेम-गली होती थी
प्रेम-गली आज भी वहीँ है
अलबत्ता मदरसे की दीवारें
और ऊंची हो गयीं हैं
आज भी जोड़े मिलना पसंद करते हैं वहीं
बस जोड़ों की उम्र
दिन-ब-दिन कम होती जा रही है
चौदह, तेरह, बारह साला जोड़े मिलते हैं वहाँ
और हमेशा की तरह
किसी हितैषी ख़बरनवीस की वज़ह से
कभी अपने वालिदान के साथ
तो कभी अपनी  प्रेमिका के तथाकथित सच्चे प्रेमी
या प्रेम को नीच कर्म मानने वाले
उसके(प्रेमिका के) कुछ ज्यादा ही मुस्टंडे  भाइयों से
पिटते-पिटाते घर का रास्ता नापते हैं
ये बात और है कि प्रेमिका का वही पाक-साफ़ भाई
मिल रहा होता है किसी लड़की से
किसी और प्रेम-गली में
आज फिर गया था वहाँ
जहाँ  मिले थे आखिरी बार हम
अपनी -अपनी अलग ज़िन्दगियों में
ठेले जाने से पहले
देखा
आज फिर मिल रहा था कोई किसी से
उसी गुलमोहर के तले
अलग रास्तों पर जाने के पहले
वैसी ही बिना रोई, सूजी आखें
देख रही  थीं  एक-दूसरे को
फिर आँसुओं का वज़न सम्हालने की कोशिश में
उठ जा रही थीं आसमान की ओर
मानो जिस्म का सारा दम लगाकर भी
रोक लेना चाह रही हों एक-एक आँसू
मगर....
मगर जैविक उत्परिवर्तन होने में लगती हैं
कई सदियाँ
और अभी भी इंसान की आँखें
इतनी मज़बूत नहीं हुई हैं
कि उठा सकें बर्दाश्त के बाहर
एक भी आँसू का बोझ
दिल की तरह
सो उन दोनों की हथेलियाँ
एक-दूसरे के आँसू पोंछने की
नाकाम कोशिशें करती रहीं
हमारी ही तरह
इन बीस सालों में कुछ भी तो नहीं बदला वहाँ
लगता है  गुरुजन का ,
उपदेशकों, स्वामियों-बापुओं का,
भांटों-साहित्यकारों का,
इंटलेक्चुअल ठूंठों का
लिखा-कहा व्यर्थ था
समय के दबाव
और शब्दों की बदहज़मी से पीड़ित बेचारों का
कोरा वैचारिक-वमन ही था
तभी तो
इक्कीसवीं सदी में भी प्रेम निषिद्ध है !
राम ने किया सीता-विलाप
विह्वल हुआ जग
पूजे गए
असंख्य गोपियों,
हज़ार पत्नियों वाले
रसिक किशन कन्हैया
प्रेम की मूर्ति भये
लैला-मजनूँ,
शीरीं-फरहाद,
हम और आप
जब भी किया प्रेम
कूटे गए ,लतियाए गए ,
जी भर गरियाए गए
सही भी  है
प्रेम हमेशा से
पहुँच वाले की बपौती रहा है
और ये पहुँच वाले
नहीं चाहते
कि मैं और तुम
जात-धरम की बनियागिरी को लात मार
साँझा संसार रचें
इतने सालों के इंतज़ार  के बाद
अब भी वही सडांध,
वही बजबजाती दकियानूस परम्पराएं ??
अब और नहीं होता सब्र
चलो एक नयी दुनिया रचें
जहाँ सिर्फ और सिर्फ प्यार हो,
जहाँ चाँद पर हमारा भी हक हो,
उसे छू सकें ,
सहलाकर पूछ सकें-
'कहो दोस्त कैसे हो?खुश तो हो अपनी चाँदनी के साथ ?'
चलो एक नयी दुनिया रचें
जहाँ ज़िन्दगी की तमाम मुश्किलें
जात-धरम का खोल उतार कर सामने आयें
जहाँ हमें हमारी जात,हमारे गोत्र,
हमारी पुश्तैनी पूंछ से
पहचानने वाला कोई न हो !!





सुधा उपाध्याय









विदाई

विदाई के इन क्षणों में
हे अनुरागी मन विरागी क्यों हो चले
तुम्हारी जोगिया आहट
सहज सरल स्मित रूप
रोशनी से धुली-धुली
अधपकी अरुणाई
उसी में नहाती मैं
जैसे कल ही की बात हो
कुछ देखे अहसास
हमें जोड़े रहे तिनका-तिनका
तुम आंक भी न पाए
मैं भांप भी न पाई
रंग बिरंगे खट्टे मीठे अहसासों को
जब चलनी लेकर छानती हूं
तो छलनी-छलनी हो जाती हूं
अनजाने ही कड़ियां जुड़ती रहीं
और बरसों तक जुड़ाते रहे हम
तुम्हें देखा कभी चरण मोहबद्ध
कभी मोहमुक्त
फिर विदाई के इन क्षणों में
हे अनुरागी मन विरागी क्यों हो चले





नीरज द्विवेदी 

butter


नाजायज अब जायज है
 
तू अगर खड़ी हो सम्मुख तो,
दिल की दुर्घटना जायज है,
आँखों की बात करूँ कैसे?
इनका ना हटना जायज है॥
स्वप्नों में उड़ना जायज है,
चाँद पकड़ना जायज है,
गर तुम हो साथ मेरे तो,
दुनिया से लड़ना जायज है॥
किसी और से आँख लड़े कैसे?
ये सब तो अब नाजायज है
तू हो मेरे आलिंगन में तो,
धरती का फटना जायज है॥
चाहें लाख बरसतें हो बादल,
उनका चिल्लाना जायज है,
गर तेरा सर हो मेरे सीने पर,
बिजली का गिरना जायज है॥
अचूक हलाहल हो सम्मुख,
मेरा पी जाना जायज है,
इक आह हो तेरे होंठों पर,
तो मेरा डर जाना जायज है॥
स्रष्टि का क्रंदन जायज है,
हिमाद्रि बिखंडन जायज है,
मेरे होंठो पर हों होंठ तेरे,
तो धरा का कम्पन जायज है॥
तू हो तीर खड़ी नदिया के,
उसका रुक जाना जायज है,
बस तेरे लिए हे प्राणप्रिये,
मेरा मिट जाना जायज है॥




सुंदर सृजक

balloons1


प्रेम की प्रतिरक्षा शक्ति

तुमसे प्रेम करना
अब आसान हो गया है मेरे लिए
घर, समाज और साहित्य
सभी उदार हो गए है अब....
अख़बारो के कटिंग मैंने सहेज-सहेज कर
अपने समय की एक किताब बनाई है
जिसमें किसी नई क्रांति या
किसी सरकारी योजना का विज्ञापन नहीं
कुछ पुराने गुनाहो की सजा के फैसले है
कुछ पुराने सजा के तहत पुराने गुनाह है !
सहमे हुए चेहरे,कतराते हुए आंखे
अब घूरते नहीं हमे
पर भूलते भी नहीं
पुराने मंत्रों को जीवित रखने की परंपरा
पुराने किस्सों के अमर नायक-नायिकाओं को
बुदबुदाते रहते है गौरव-गाथाएँ जातियों की
और बढ़ा चूके है अपनी प्रतिरक्षा शक्ति
और सीख लिया है प्रेम की नई भाषा!
तुम और भी लाडली हो गई हो उनके
अब तुम्हें तय करना है
प्रेम की अलग अलग परिभाषाएँ
और बनना है दोनों के अनुकूल!
हम दोनों ने अर्जित कर लिया है
प्रेम की चरम अनुभूति
बगैर किसी प्राण घातक आज़माइश के
तुमसे प्रेम करना
अब आसान हो गया है मेरे लिए........





प्रियंका जैन

udaan roses


बर्बादी का सबब..
साथ लाया हूँ..
जिस्मों को तौलने..
रूह का काँटा लाया हूँ..
तुम्हारा आसमां थोड़ा फीका है..
मेरी ज़मीं थोड़ी गमगीं है..
आओ..
ज़रा बैठ हिसाब लगायें..
क्या खोया..
क्या पाया..
कुछ कदीम जज़्बात..
कुछ सुलगते अरमान..
और..
कुछ तेज़ कदम..
मेरी रूह-से-तुम्हारी रूह तक..!!!"





कोमल सोनी


butter2

प्रेम-समर्पण

इस कदर
मेरे वजूद में,
तु समाया है,
खोजु खुद को तो,
खुद में तुझे पाया है|
जिन्दगी की,
हर कदम की
तपिश पर,
तेरी मौजूदगी की,
शीतल छाया है||
तेरी बंदगी ही लगती,
इबादत खुदा की;
मुझे महसूस हुआ,
खुदा, तुझमे समाया है|
जीवन के मधुर-सुमन,
तुम्हें समर्पित;
प्रेम की उमंग
और
उत्साह छाया है|
आज, दिल की गलियां,
सजा ली हमने;
समर्पण के सम्पूर्ण भाव से,
दिल शरमाया है|
तेरे प्रेम और सौहाद्र की,
बारिश में भीगकर,
दिल का,
"कोमल अहसास" खिल आया है||





सुमन तिवारी 




कहीं तुम देह में केसर


अजब है हाल  मौसम का फिरोज़ी  नम  घटाओं में

शराबी गंध इठला कर घुली गीली हवाओं में

कहीं तुम केश  में बेला सजाये तो नहीं बैठी

           सिमट कर कर तलों  में कंचनी सब देह  भर आयी
युगों की साध कर पूरी कंवारी आस गदराई
सुलगती जलन का आभास मिलता है चनारों में
महक जूह्ही के फूलों  की उड़ी जाती  बहारों में
कहीं तुम देह में केसर रमाये तो नहीं बैठी


अमावस के अंधेरों की कालिमा तज कर

बिखेरे  राष्मिआं आयी सुनहली लालिमा सज कर

पहन कर वसन वासन्ती अनेकों रूप इतराए

सृजन की तूलिका  में इन्द्रधनुषी रंग भर आये

कहीं तुम हाथ में मेहँदी रचाए तो नहीं बैठी

निरख कर रूप चांदी  सा लजाया  आज हर दर्पण

रगों  में बिज्लिओं सी कौंधती मृदु मिलन की सिहरन

निहारें जोगिया योवन पिया के पथ मुंडेरों से

झरे हैं लाल रंग के फूल राहों में कनेरों से

कहीं तुम मांग में सेंदुर  सजाये तो नहीं बैठी






युवराज अग्रवाल


jalpari


कल बुक्शेल्फ से,
तुम्हे लिखे ,वो ख़त
मेरे हाथ लगे
जो सलाम से
खेरियत तक ही पहुँच पाए थे,
उसके आगे का कारंवा
ख्यालों और ख्वाबों का था
उनको मैं कभी शब्द नहीं दे पाया
तुम नहीं जानती,
तुम्हारे नाम से ही कितने
हज़ार ख्याल दिल की गहराइयों से
गुज़र जाते है
तुम्हारे ज़िक्र से ही अनगिनत ख्वाब आँखों की
पलकों पर आ बैठते है
तुम ठीक कहा करती थी
मैं कभी मुकम्मल इश्क नहीं कर सकता
तुम्हे पा कर भी ना पा पाया
तुम्हे खो कर भी ना खो पाया
सोचता हूँ मैं अपने ख्यालों और ख्वाबों को
शब्द दे पता
ज़िन्दगी को एक नया रंग दे पाता





रंजना भाटिया 

balloons




प्रेम के सागर को
प्रेम की गहराई को
प्रेम के लम्हों को
कब कोई बाँध पाया है
पर  इक मीठा सा एहसास
दिल के कोने में दस्तक देने लगता है
जब मैं तुम्हारे करीब होती हूँ
की काश प्यार की हर मुद्रा में
हम खुजराहो की मूर्त जैसे
बस वही थम जाए
लम्हे साल ,युग बस
यूँ ही प्यार करते जाए
मूर्त दिखे अमूर्त सी हर कोण से
और कभी जुदा न होने पाये
काश बरसो से खड़े इन प्रेम युगल से
हम  एक प्रेम चिन्ह बन जाए




निरुपमा सिंह 


rose3

काश मैं होती हवा
 
तोड़ बधन हवा के डोलती
सांस में बस्ती निरंतर ह्रदय के
आस पट विश्वास बनकर खोलती
शरद की अलमस्त शीतल छुवन बन
आत्मा की वेदना टटोलती
राह की रोड़ा नही होती हमारे दूरियां
चाह भर पर्याप्त होती मिलन की
आहट सुनते ही तडपते ह्रदय की
आ बसे दिल में सुरभि का झोंका बन
कक्ष में मकरंद रस घोलती
कंपकपाते चरण रखती मंद -मंद
पास आ खड़ी होती...मै.
कानों से मेरे निज अधर सटाकर
राज़ के कुछ बोल गुपचुप
बोलती मै
केश सहलाती सुकोमल स्पर्श से
ताप हरने को बदन का जातां कर
लाज से आँचल चंवर सा डोलती
काश मै होती हवा
      काश बन सकती हवा ?




प्रीति सुराणा



Love-wallpaper-love-4187632-1920-1200



पहली बार न जाने कैसी,जागी मन में इक आशा,
स्नेह के इन अनुबंधों को,क्या दूं मैं कोई परिभाषा,
अब से पहले जाने कैसे,मैं जीती रही अंधियारों में,
जब सपनों से जागी,खुद को पाया इन उजियारों में,
मिलकर उनसे ऐसा लगा,दूर हुई हर एक निराशा,
स्नेह के इन अनुबंधों को,क्या दूं मैं कोई परिभाषा,
दूर खड़े वो तकते रहे,जाने कितने पल मुझको,
पर जाने क्यूं महसूस किया,बहुत पास मैने उनको,
समझ के भी मैं समझ न पाऊं,नेह बंधों की ये भाषा,
स्नेह के इन अनुबंधों को,क्या दूं मैं कोई परिभाषा,
स्पर्श को उनके महसूस किया,हवा के झोखों से तन ने,
रहते हैं वो मेरे दिल में,अहसास दिलाया धड़कन ने,
पर मैं कैसे कहूं कि मन मेरा अब तक प्यासा,
स्नेह के इन अनुबंधों को,क्या दूं मैं कोई परिभाषा,
टूट न जाए मेरी आशा,फिर से न हो कोई निराशा,
समझे वो मेरी भाषा,मन न रहे मेरा प्यासा,
हर पल रब से मांगूं यही,पूरी करदे मरी अभिलाषा,
स्नेह के इन अनुबंधों को,क्या दूं मैं कोई परिभाषा,
पहली बार न जाने कैसी,जागी मन में इक आशा,
स्नेह के इन अनुबंधों को,क्या दूं मैं कोई परिभाषा,....








कुदरत की रचना

 
शृंगरित किया खुद कुदरत ने,
तुम उसकी सुंदर रचना हो।
मैं सोचूँ तुमको देख यही कि,
किन आँखों का सपना हो।



तेरी झील सी गहरी आँखों में,
खो जाने को मन करता है।

झील तो बस एक धोखा है,
जैसे बहता हुआ समन्दर हो।



जुल्फें जब तेरी लहरायें तो,
बदली सी छा जाती है।

बलखाती घटायें शरमायें,
जैसे जुल्फें उनकी मलिका हों।



चाँद सितारे सूरज सब,
दीदार को तेरे तरस रहे।

समय भी अपनी गति बदले,
जब-जब तेरा चलना हो।





प्रवीण कुमार श्रीवास्तव


butter



शायद, अब
मैँ कुछ भी नहीँ रहा
तुम्हारा/ लेकिन
मैँ जानता हूँ, कि
तुम मुझे/महसूस करती होगी
अपनी साँसोँ मेँ
उलझी, लिपटी, अटकी हुई
मेरी साँसेँ/ रात के अँधेरे मेँ
खुले आसमाँ के नीचे
छत की फर्श पर
लेटी हुई/ महसूस करती होगी
मेरा अक्स,
चाँद के आस-पास
जाड़ोँ की सुनहरी धूप मेँ
ऊँघते हुए ।
अचानक/बंद फाटक के पार से
आती हुई कदमों की आवाज से
टकराकर/लौट आती होगी
तुम्हारी चेतना
टटोलती होगी - मुझे
तकिये के नीचे
या फिर
कभी झाँकती होगी
डस्टबिन मेँ, कि
चंद टुकड़ोँ मेँ ही सही/दिख जाये...
मेरा अक्स.......
नैन-नक्स........।






सचिन पी पुरवार








तेरा यौवन


"है ख़ुशी इस बात की कि है तू मेरे पास अब
जागता था रात भर तू न थी मेरे पास जब
तेरे सपने तेरी यादें तेरा ही एहसास था
तू तो मुझसे दूर थी पर दिल तो मेरे पास था
क्या मेरे जज्बात जागे तू नहीं तो कुछ नहीं है
एक तू ही आरजू की तू नहीं कुछ भी नहीं है
फूल नाजुक हो या फूलों की लड़ी तुम सांवरी
नयन चंचल होंठ फूलों की कली तुम बाबरी
मस्त है अंदाज़ तेरा मस्तियाँ तुझमें भरी
यौवना चिरयौवना झलके है तुझमें हर घड़ी
आ तेरा दीदार कर लूँ प्यार और बस प्यार कर लूँ
आ तू लग जा अब गले से मस्तियाँ दो चार कर लूँ
है महीना प्यार का मत रोक मुझको तू अभी
वक़्त है इज़हार कर ले फिर मिलूँगा न कभी
रोज डे न रोज आये दिन बचे हैं आठ जी
सोच लो मम्मी से पूंछो पूंछ  लो पापा से भी
कह दो उनसे है ये यौवन दिन हमारे हैं अभी
हैं हमारे वो हम उनके हैं दो आशीर्वाद जी
झील सी आँखें तुम्हारी क्या कटीले होंठ हैं
संगमरमर सा बदन है बिजली है बिस्फोट है
दिन है चौदह फरवरी तू याद रखना ओ सनम
इंतजारी में कटेगा वक़्त तुझको है कसम
इतना सब सुनते ही बोली जान लेगा क्या सचिन
हो गयी तेरी मैं सजना छोड़कर सबको सनम" |

 

                                             आगे जारी है.............................



15 comments:

  1. बेहद खूबसूरत कोशिश . शुभकामनाएं .

    ReplyDelete
  2. सुन्दर संयोजन!
    अंतर्मन की उड़ान को धीरे धीरे समग्रता में पढ़ेंगे...
    अभी आप लोगों के सार्थक श्रम से सजी इस महफ़िल को देख कर मन अभिभूत है!

    ReplyDelete
  3. सबसे पहले आप सभी ko प्रेम दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं, आपका अपने सभी अपनों के साथ प्रेम फलता फूलता रहे यूँ तो भावना से भरा दिल प्रेम को प्रदर्शित करने को किसी तय दिन का मोहताज़ नहीं ,फिर भी ये चलन सबको मुबारक हो दिल से.........
    मैंने " उड़ान अंतर्मन की " यहाँ पोस्ट सभी कवियों के पोस्ट पढ़े सभी रचनाएँ अपने आप में बहुत ही उतम प्रेम भाव पिरोये है सभी साथियों को आभार ......और अंजू जी, यशवंत जी को जितनी शुक्रिया दे सकूँ कम है | उनके ही सहयोग से सभी साथी अपने रचनाओं का संसार एक जगह समेट पायें........

    ReplyDelete
  4. प्रेम दिवस की सार्थक प्रस्तुति है…………हमे तो इस ब्लोग का पता नही था वरना जरूर भेजते प्रेम कविता………बेहद खूबसूरत प्रयास है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. waah bahut sundar premmay ho gaya prem diwas likhi sabhi kavita padh kar aur saath bajte sangeet ko sun kar shukriya

      Delete
  5. अच्छा प्रयत्न, अच्छा आयोजन ! बधाई कवियों को, अंजू को और उनके सहयोगी यशवंत को. गुलाबी पृष्ठभूमि, यत्र-तत्र सजी दिलों की कतार , तीर-बिंधा कर्सर...सब कुछ चित्ताकर्षक है. छह-सात कविताएं भी उल्लेखनीय निकल ही आएंगी. ज़्यादा ज़ोर मारेंगे तो दस. इतना सब कुछ आयोजकों के लिए काफ़ी उत्साहवर्धक होना चाहिए.

    ReplyDelete
  6. प्यार को भाषा में बंधा हुआ पढना सुखद है जबकि उसमे खुद की भी भागे दारी हो ...अंजू जी यशवंत जी आपका प्रयास सफल रहा .धन्यवाद

    ReplyDelete
  7. वाह ! आपकी मेहनत और सार्थक प्रयास के क्या कहने .......क्या बात ........क्या बात .........क्या बात |

    ReplyDelete
  8. कविता पढ़ कर --कमेन्ट करेंगे --अभी सिर्फ फोटो देखे---गुब्बारे,तितली.फ़रिश्ता---कविताओं की लम्बाई देखि----हे भगवान् कोई तो इतनी लम्बी की डाउन जाते जाते ही अरसा लगा ---बेहतर होता की आप समीक्षा भी देते---taaki हम कुछ चुनिन्दा कविता पढ़ लेते---बजाय हर एक कविता पढने के

    ReplyDelete
  9. इस सुंदर और प्रीत पगे प्रयास के लिये अंजू जी और यशवंत जी को बहुत-बहुत बधाई और प्रीत के रंग में सराबोर करने के लिए शुक्रिया।

    ReplyDelete
  10. अंजू और यशवंत जी को इस रोचक प्रयास के लिए बहुत बधाई.....

    ReplyDelete
  11. Prem ke bhavon ki achchhi praatuti.

    ReplyDelete
  12. sundar prem kavitaon ko ek sath padhna ati sukhad hai.meri rachna ko sthan dene ke liye hardik aabhar.anju ji evam yasvant ji ko is prayas hetu hardik badhai.

    ReplyDelete