Sunday 29 July 2012

शंभू यादव की कविताएँ

दोस्तों! आज हम आपके लिये लेकर आए हैं शंभू यादव जी की कुछ कविताएँ।

पेशे से व्यवसायी शंभू जी साहित्य एवं काव्य में गहरी रूचि रखते हैं। सहज एवं जिज्ञासु श्रोता शंभू जी की रचनाएँ  आम आदमी एवं समाज के निम्न वर्ग के प्रति उनकी सहानुभूति की स्वतः अभिव्यक्ति हैं जो शुरू से अंत तक पाठक को सफलता पूर्वक बांधे रखती हैं। 

बीरबानी

वह मुँह अंधेरे उठ गई है
तूड़े में बिनौले मिलाती
भैंसों को डाल रही है सानी
थाण से उठाती गोबर
दिन में उपले थापेगी

पौ फटे चक्की पीसती

वह बुहार रही है घर का कूड़ा
जमा करती है कूडी में खाद

धूप फैलने को है आंगन में
वह गोद वाले को चूच्ची पिलाती
खेल में मस्त छोरी पर झीकती है-
‘नासपीटी, कुछ पढ़ ले !’

वह फूंकती है चूल्हा
उपले-सरकंडों की चरड़-चरड़
रोटी की महक फैली है
वह नहा रही है
पीटने को पड़े हैं मैले लत्ते
वह घाघरा पहन रही
ऊपर कुर्ती
सिर पर गोटेवाली लुगड़ी
‘बस-बस ! हो गया सिंगार’
वह घूंघट निकाल रही

अपने धणी की रोटी लेकर आ गई है खेत में
छाय, गंठी के साथ मिस्सी रोटी खाता वह
वह देखती उसको
चरते बैलों को पपोलती

तेज धूप में लावणी करती

खाते में निकालती अनाज़
बांकली फांकती
वह गुड़-धाणी बांट रही

उसके सिर पर भारी भरौटा

चुपड़ दिया है सास का सिर
पड़ोस से आयी दादी के पांव भीचें
‘दूधो नहाओ पूतो फलो’

चाक की चकली घूम रही है लगातार
साठ हाथ उंडे कुएं से पानी खींचती वह
अभी तो डांगरों को भी जोहड़ ले जाना

अंधेरा घेरने लगा
उसने चिमनी जला दी
समेट लिया शाम का चौका
‘हारे में कड़ा-उपला डालना न भूलियो’
बचा रखनी है आग हरदम

टाबरों को थपेड़
वह काजल लगाती
भीतर वाले कोठे में लेटी है
मौटयार के बगल
चूड़ियों की खन-खन
वह सो जाना चाहती है दो घड़ी के लिए
वह सपना देखती

वह सोचती है-
‘उसके सिर ये गज भर का घूँघट क्यों ?’

पृथ्वी, मेरी माँ और भूकंप


सदियों से
पृथ्वी पर बसे हैं हम
मेरी माँ कहती है
पृथ्वी बसी है बैल के सींग पर

जब कभी भूकंप आता है
काँपती है पृथ्वी

शांत भाव से समझाती है मेरी माँ -
थक गया है बैल का एक सींग
उसने पृथ्वी को दूसरे सींग पर रखा है

भूकंप से जब कभी होता है
जान-माल का नुकसान
माँ शून्य में देखती, धीरे से बोलती है-
यह सब भगवान की लीला
जब बैल बदलता है पृथ्वी को
एक सींग से दूसरे सींग पर
पृथ्वी के बढ़े पाप झर जाते हैं

सदियों से
पृथ्वी पर बसे हैं हम
पृथ्वी पर सदियों तक बसे रहेंगे

मेरी माँ के विश्वास में-
ईश्वर की संतान हम।

इस देश के करोड़ों लोगों के अनेकों विश्वास
और अनेकों प्रभुत्वशाली अंधविश्वास
कुछ अनायास बने हैं
कुछ को अपनाया गया है सोच-समझ
कुछ का तो धंधा ही जोर पकड़े है अंधविश्वासों के बैनर तले
क्या अंधविश्वास फैलाना- हिस्सा है सत्ता की सोच का!?

निम्नमध्यवर्गीय परिवार की एक लड़की का प्यार

प्यार करती है वह
निम्नमध्यवर्गीय परिवार की एक लड़की
एक जवान गबरू पर
अपना दिल हार गई है

बहुत ही कम पढ़ी-लिखी
निम्न मध्यमवर्गीय की वह लड़की
रात को पानी भर बाल्टी में
उतारना चाहे है भरे पूरे चाँद को

उसके पोर-पोर में
फिल्मी गीतों का आरोह-अवरोह
मन में कृष्ण -राधा की प्रेम-बलियाँ
राम-सीता की आदर्श जोड़ी
शिवलिंग की नित पूजा।

काँटों भरे सरकंडे के घने झुंड में
गौरैया फुर्र-फुर्र
चाव से आस का तिनका चुनती 
घर बनाना है उसे
एक प्यारी सी डाल पर

भीषण गर्मी में उड़ते बालू के बीच
गौरैया द्वारा यह सब कर पाना आसान नहीं
वैसे ही बहुत कठिन है
एक निम्नमध्यवर्गीय लड़की का
प्यार करना भी

पर मेरा कवि मन पुरजोर लगाता है-
गौरैया काँटों के बीच से
अपने को बचाती ले उडे़ तिनका
डाल तक पहुँच जाए बगैर झुलसे
निम्नमध्यवर्गीय लड़की का सफल प्यार
बना ले अपना घर

डाल पर गौरैया का घोसला, झूलता दिखे हमेशा।

‘दुखिया दास कबीर’

वह बहुत दिनों से सोचता आ रहा था
बहुत दिनों तक सोचते रहने के बाद
उसने सोचा एक दिन
वह कुछ भी ऐसा-वैसा नहीं सोचेगा
जो उसे तिलमिला दे

नहीं सोचेगा-
बहन की ठठरी पर चढ़ जाए माँस तो
दुल्हा मिलने में आसानी हो
हर दिन के लिए आग बचाती माँ
झुकी कमर वाली नानी सी दिखती है।

लाला बनी क्षत्रिय मूछों के बारे में
या क्षत्रिय बनी लाला की खिली बांछें-
खदेड़ती घरों को!

आदमी वस्तु है या वस्तु बन गया है आदमी
वस्तु की देह को चमकने की सलाह देती वस्तु

सब तरफ ‘घपला’ शब्द सुनने को आता है
फासिस्ट सोच का कायल उसका पड़ोसी डाक्टर
क्यों हुई उसे इसकी जरूरत!?
संसद की सीढ़ियों पर चढ़ते सांसद की गलीज़ नैतिकता
पिशाचनी-पूँजी के विकराल मूँह में जब्ज इतना बड़ा लोकतंत्र!


बहुत दिनों तक सोचते रहने के बाद
एक दिन उसने बहुत सी उदासी में सोचा
तर्कशील होना बंद कर देगा
तर्कशीलता आदमी को ‘दुखिया दास कबीर’ बना देती है।

तपिश

कहीं सवेरा ढूँढ़ रहा है धूप को
तपती दोपहर मंे छाँव चाहिए कहीं
कहीं सूखा ही सूखा
उसी समय में कहीं डूब गया पूरा गाँव

कुछ जंगल में, तलाश कंद-मूल की .......

और बहुत कुछ बिकने को तैयार है हाट में
दमड़ी की लीला को
न सहलाऊँ अगर
मेरे पिता ही मुझे नकारा कह देंगे

फिर भी बचा के रखना चाहता हूँ-
खोल में तपिश।

एक ताजा वाकया

वह आदमी आगे-आगे चलता था
उसके हाथ में मिनरल वॉटर की बोतल थी
बोतल को खरीदते वक्त
उसने ‘डेट ऑफ मैनुफेक्चरिंग’ को जाँचा था अच्छी तरह

साथ बराबर चलती धर्मपत्नी
पति के लिए ‘पीटर इंग्लैंड’ व बच्चों के लिए
‘वुडलैंड’ का सामान खरीदने के साथ
उसने अपने लिए भी
मशहूर फैशन डिजाइनर के कपड़े पसंद किए थे
खुश थी आज
समान के विभिन्न बंडलों में उसके हाथ बंधे
पीछे चलते बेटा-बेटी
हाथ में उनके लेज़ के वैफ़र

कि एक दुर्बल काया स्त्री
जिसकी आँखों में सूनापन और चेहरा मलीन
दुर्बल काया के हाथ
अगल-बगल में अपने बच्चों को थामने में कसे
हाथों की हथेलियाँ अस्वाभाविक रूप से याचना भाव में
चलना मुश्किल हो रहा था उसका
उस परिवार के सामने आ गई

ऐसी परिस्थितियाँ बनी है पहले भी
कभी दे दिया कुछ
या झिड़क दिया गया
परन्तु इस बार तो उस परिवार ने
हिकारत भरी दृष्टि भी न डाली
उस निर्धन परिवार पर।

और जब वह आदमी अपनी छोटी सी गाड़ी के पास पहुँचा
एक तेज रफ्तार बड़ी गाड़ी आगे निकली 
उस आदमी को पीछे धकेल
बड़ी गाड़ी का ऊँचा बम्पर उस आदमी की आँखों में खटक गया

यह सब बाजार की उस सड़क पर घटा
जिस पर बहुत तड़क-भड़क रहती है आजकल।

चाहत

चाँद उचक-उचक कर नीचे देखता
झांक रहा है महानगर की गलियों में
चाँद की चाहत-
महानगर में कहीं तो पथ-प्रदर्शक बन सके ..........

महानगर महत्वोन्माद से पीड़ित है

महानगर सोचता है-
उसके पास अब साधन बहुत
चाँद की यह इच्छा कि
वह बन सके उसकी किसी गली का पथ-प्रदर्शक
अब किसी काम की नहीं

महानगर अटकल लगा रहा है-
चाँद का किसी तरह प्रत्यक्ष दोहन कर सके
खोजता जीवन के स्रोत चाँद पर
काट रहा है प्लाटस ..... ।

बदलाव

बच्चा टी.वी. से पहचान बनाता-
दिखने में सफेद होता है खरगोश
कछुआ अपनी गर्दन पीठ में छुपा लेता है
शेर जंगल का राजा है
सूंड उठा चिंघाड़ता हाथी

बच्चे की इच्छा में मोगली सा बनना

बच्चा टी.वी. की भाषा में सोच रहा 
सच का अर्थ है ‘हमाम’ साबुन
विज्ञापन की आभा में बच्चा- 
 ‘मैलोड़ी’ खाओ सब जान जाओ’
बच्चे में आजादी का अनुभव
‘पेप्सी' पीकर

‘सुपरमैन’ है ‘बैटमैन है
उड़ता ‘बलू का हवाई जहाज
टॉम व जैरी की छेड़छाड़ 
चहेता ‘मिकी माउस’
बच्चों के सपनों में
कारों के विभिन्न ब्रांड 

दादी माँ के लिए समय नहीं अब
कौन पढ़े शेखचिल्ली के किस्से
पंचतंत्र की कहानियाँ-
गहरे गड्ढे में दफन होती

आसपास कौन से पेड़ लगे हैं
किसी पक्षी की आवाज सुन
उसे पहचानने की चाह नहीं अब।

फुरसत के लिए एक सपना

दुनिया के तमाम तामझाम को बैक-ग्राउंड में धकेल
आज प्रौढ़ होते एक पिता ने
बच्चों से तुड़वाये हैं सफेद बाल

हवा में स्वच्छंद दौड़ता घोड़ा
न जीन कसी है पीठ पर
न ही कोई जकड़ लगाम की

दो बादलों का फोफला होना
एक दूसरे में सिमटना
एक दूसरे को गुदगुदाना

स्निग्ध पंखुड़ियों में सानिध्य-गंध
भूला-बिसरा सरूर परवान.......

यह सब हो गया है निर्दयी समय के विरुद्ध
काम के बोझ का मारा आदमी
‘कहाँ फुरसत है’ जैसे वाक्य को धत्ता दे
आनंद में उमड़ा है

आओ ! इस सपने को बार-बार रिटेक करें।

साफगोई की आशा में

काहे जरूरत थी इतना कुछ बताने की
काहे किए इतने प्रपंची-शोध कि
शीशे के ताबूत में बंद शरीर के मृत होने पर
जब निकलती है आत्मा
ताबूत का शीशा किरक जाता है
‘आत्मा होती है’ का प्रमाण है।

कह देते बस इतना भर
जैसे धूप पार कर जाती है साफ-स्वच्छ शीशे को
वैसे ही आत्मा आर-पार, चमाचम

लेकिन एक अन्य सवाल भी उभरता है

आजकल साफ और स्वच्छ शीशा कहाँ है ?
किसी पर धूल जमी है ........
और रोगन के छींटे जो आ लगे हैं उसे कौन छुड़ाए।

झील व मुनिया की कहानी

वहाँ एक झील थी
छलकता-फलकता आशाओं का सोता
सदइच्छाओं का प्रवाह

पेड़-लता-गुल्म-गात भरपूर आसपास
अपने ही स्टाइल में फलता-फूलता एक जहान

इनके बीच रहती थी मुनिया
इधर-उधर कूदती फांदती
गठ्ठर बनाती सूखी लकड़ों का
जीवन के अधिकतर हिस्से में कंद-मूल का आस्वाद
अपना उत्सव अपना राग।

एक दिन अनष्ट हुआ
‘वो कुछ’ आए झील के पास
पिकनिक मनाया
खाया-पीया
झूठन फेंक दिया सदइच्छाओं के पृष्ठ पर
झील में उनका मल-मूत्र निष्पत

झील की तल में जमने लगी गाद
फैलने लगी सड़न
असमझ में मुनिया।

फिर एक दिन
शुरुआत हुई महाअनष्ट की
‘वो कुछ’ के कुछ ‘वो’ ने
पेड़ लता गुल्म गात को कटवा दिया तेज मशीनी आरी से
समतल करवा दी जमीन
झील के आसपास की मिट्टी को खुदवा
झील के पानी से गुदवाया
साँचे में डलवाया, उनकी मनचाही ईंट बने 

झील के पास बनाई गई एक बड़ी इमारत
अंग्रेजी के दमकते अक्षरों में ‘शॉपिंग प्लाजा’ लिखा 
जहाँ खरीद को पूरे भूमंडल का माल-असबाब 
‘मॉल’ में मुनिया का घुसना मना।

झील अब एक वॉटर-पार्क 
‘एथनिक फन-एन-फूड’ की कंकरीट-दीवार में कैद
मुनिया का कंद-मूल स्पेशल डिश के रूप में सर्व
चटकारे मारते ‘वो कुछ’
‘एनड्यूरिंग मैजिक’ में मग्न

और मुनिया बेघर
इधर-उधर
किधर ?

इंतहा की कुछ टीपें

      1


इस शाही शादी में
वातानुकूलित वाटरप्रूफ शामियाने
आतिशबाजियाँ-रंगबाजियाँ-संगबाजियाँ
फरारी-ऑडी-टोयटा-फोयटा
राजा-रजवाड़ा  मंत्री-संतरी  नेता-अभिनेता
माफिया सट्टेबाज बिल्डर
विदेशी इतर-फितर
प्लेटिनम डायमंड-नेकलेस ब्रांडिड
स्कॉच-कानयॉक शेर्री शैम्पेन
केवियर-झीगा-सालमन  रॉस्टेड अलमंड श्शाही लज़ीज़ा
वगैरह-वगैरह

मैं यहाँ एक और बात का जिक्र करना चाहूँगा
दुल्हन की एक जूती की कीमत इतनी है कि
भारत देश के सौ गरीब
जीवन-भर के लिए
अपने खान-पान का जुगाड़ कर लें

       2


बात वही तक रुक जाती कि
वह अन्याय का प्रतिरोध करने में चूकने लगे हैं
निष्क्रियता का लिबादा पहन बैठ गए हैं
परन्तु हुआ कुछ ऐसा, वो
बच्चियों को गर्भ में ही मारने के इंतजाम में शामिल हो गए।

       3


वैसा ही चेहरा
वैसा ही अट्टहास
वैसे ही छदम् सत्ता के लिए
कर रहे कर्मकांड वैसे ही

सदियों से बिगड़ी अपनी सूरत से परेशां हो
ठीक ही निकले थे तिकड़मी ताकत के विरुद्ध
पर उसी ताकत का नया करार बन गए

चारण भी प्रस्तुत है उनके लिए।


प्रस्तुति-यशवन्त माथुर

15 comments:

  1. शंभु जी की कविताएं पढ़ना अपने समय के एक बेहद सजग कवि की घनीभूत चिंताओं से पूरी शिद्दत से मुठभेड़ करना है। वे हमारी काव्‍यचिंताओं को बहुत दूर तक ले जाने वाले आज के दुर्लभ कवियों में हैं। नकली चिंताओं के कारोबारी काव्‍य संसार में उनका होना हमें हिंदी कविता के भविष्‍य के प्रति गहरी आश्‍वस्ति देता है। मैं कवि के लिए अपनी शुभकामनाएं देता हूं और आपका धन्‍यवाद कि एक अनिवार्य कवि की कविताएं हमारे लिए साझा कीं।

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  2. बेहतरीन रचनाएँ हैं....इन रचनाओं में मानव मन को और उसकी मानसिकता को बखूबी उतारा है कविवर ने..बहुत बढ़िया...
    साझा करने का शुक्रिया यशवंत.
    सस्नेह
    अनु

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  3. achcchi rachanaye padhane ke liye shukriya

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  4. ्बेहतरीन रचनायें

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  5. शंभू जी की कविता में चीजें जिस तरह मानवीय संवेदना के विभिन्न रूपों में ढल कर आती हैं और जिस तरह हर रूप का दूसरे रूप से एक लयात्मक संबंध बनता है - वह एक अलग छाप छोड़ता है | उनकी कविताओं में अनुभूति की तत्क्षणता का जो बहुत ज्यादा महत्व है उससे आभास मिलता है कि एक कवि के रूप में उनके लिए अर्थ चीज़ों में नहीं, उनकी जिजीविषा में है |

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  6. सभी बेहतरीन रचनाएँ हैं..साझा करने का शुक्रिया यशवंत.

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  7. मार्मिक,सामायिक,सटीक और संज़ीदा अभिव्यक्ति...
    बधाई और शुभकामनाएं !

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  8. माटी की महक से सुवासित रचनाओं से परिचित करवाने हेतु शुक्रिया.कलम के धनी श्री शम्भू यादव जी को शुभकामनायें.

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  9. गाँव से लेकर शहर तक...घराडली से लेकर होममेकर तक, आम इंसान से लेकर... नेता और शाही खानदान तक...~हर एक मुखड़े को इतनी खूबसूरती से दिखाया है...कि मैं निशब्द हो गयी हूँ ! बहुत ही बेहतरीन रचनाएँ हैं!
    शुक्रिया...यशवंत जी ! इतने बढ़िया लिंक से परिचय कराने का !:)

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  10. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ..

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  11. बेहतरीन रचनाएँ....
    सादर।

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  12. सच्ची बातों को सादगी से कहना कोई आपसे सीखे

    बेहतरीन रचनाएँ..

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  13. मैं आप सब का तहे-दिल से शुक्रगुजार हूँ , आप लोगों ने मुझे इतना सराहा ....
    आप सबका धन्यवाद
    शम्भु यादव

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  14. sambhu ji ki kavitaon ki sampreshneeyata or lok ke prati pratibaddhata in kavitaon ki takat hai.......gahari samvedana se buni in kavitaon ko dhairy se padane ki jaroorat hai.

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