अमितेष जैन तुम नहीं जानती तुम नहीं जानती हो........ मैंने कभी तुम्हे बताया ही नहीं ... एक बार जब तुम चाय पी रही थीं मैंने तुम्हारी एक चुस्की चुरा ली थी मेरे होंठो पर अब तक उसकी मिठास है तुम नहीं जानती हो........ मैंने कभी तुम्हे बताया ही नहीं ... एक बार जब तुम जुल्फें संवार रही थी मैंने तुम्हारी जुल्फों को छुआ था मेरी उँगलियाँ अब तक महकती हैं तुम नहीं जानती हो........ मैंने कभी तुम्हे बताया ही नहीं ... एक बार जब तुम मेरे पास बैठी थी मैंने तुम्हारे हाथ की मेहँदी देखी थी मेरी दुनिया अब तक रंगीन है तुम नहीं जानती हो........ मैंने कभी तुम्हे बताया ही नहीं ... एक बार जब तुमने मुझे पुकारा था मैंने तुम्हारी आवाज़ सजा ली थी मेरे चारों ओर अब भी गीत बजते हैं तुम नहीं जानती हो........ मैंने कभी तुम्हे बताया ही नहीं ... एक बार जब तुम मेरे साथ चल रही थी मैं तुम्हे चाहने लगा था और अब तक तुम्हारे इंतज़ार में चल रहा हूँ तुम नहीं जानती हो........ मैंने कभी तुम्हे बताया ही नहीं ... मैन तुम्हारी आवाज सजा ली थी... ... ...... तुम नहीं जानती हो........ मैंने कभी तुम्हे बताया ही नहीं ... मैंने कभी तुम्हे बताया ही नहीं ... और मैं अब तक तुम्हारे इंतज़ार में चल रहा हूँ तुम नहीं जानती हो........ मैंने कभी तुम्हे बताया ही नहीं ... मैंने कभी तुम्हे बताया ही नहीं ... |
अर्चना राज प्रेम बनाम अस्तित्व लहरों ने एक दिन पूछा किनारे से की तुम कैसे रह पाते हो इतना स्थिर, इतने शांत बिना किसी हलचल, किसी गति के , किनारा हौले से मुस्कुराया उसकी आँखों में अहिस्ता से उतर आई नमी अचानक खुश्क हो गयी , कहा उसने की यही तो मेरी नियति है ख्वाहिश नहीं मेरी मजबूरी है ..सदियों से बस एक जगह स्थिर रहना; मै टकटकी लगाकर मात्र देख सकता हूँ .. महसूस कर सकता हूँ पर कुछ भी क्रियात्मक नहीं कर सकता , सूरज जब अपनी सारी तीखी तपिश के साथ मुझ पर छा जाता है और मै अग्नि सा जलने लगता हूँ तो बेतरह चीखता-चिल्लाता हूँ ..पर बेआवाज़ जिसे कोई नहीं सुन पाटा सिवाय तुम्हारे ; तुम ही हो जो दौड़ी चली आती हो अपनी ढेर सी नमी और ठंडक लेकर ; और मुझमे ऐसे ज़ज्ब हो जाती हो की मै फिर से स्वाभाविकता से जी पाता हूँ , जब भी हवाएं उग्र होती हैं तो उड़ा ले जाती हैं मुझे ..यहाँ से वहां ; जब मै बिखरने लगता हूँ ..बुरी तरह ..विवशता से; तब भी बस तुम्ही हो जो संभाल लेती हो मुझे अन्दर ही अन्दर ; मुझे सांत्वना देती हो और अनजाने ही जोड़ देती हो मेरे रक्त कड़ों को वापस मुझमे , और ये बारिश भी जब होती है अपने पूरे यौवन पर ; तब अपने जिंदादिल रफ़्तार से मुझे यहाँ से वहां बहा देतीहै ; मै भी जार- जार रोता हूँ उसकी निरंतर गिरती बूंदों के संग ; पर बादलों की गर्जना और बिजली की कड़कडाहट में कोई भी मेरी चीत्कार नहीं सुन पाता सिवाय तुम्हारे ; मेरे ढेरों अंग - प्रत्यंग न जाने कहाँ खो जाते हैं ; तब भी ऐ लहरों ..तुम ही हो जो न जाने कहाँ -कहाँ से उन्हें ढूंढकर लाती हो और जोड़ देती हो मुस्कुराते हुए बेहद खूबसूरती से ..बिना कोई निशाँ छोड़े , क्यों करती हो तुम ऐसा ..कहो तो क्या है मेरा और तुम्हारा ये अनकहा और बेनाम रिश्ता , पल भर के लिए लहरें थम गयी ख़ामोशी से पर जब बोलीं तो उनकी आवाज़ आंतरिक रुदन के चरमोत्कर्ष से फट पड़ी , कौन हूँ मै तुम्हारी और क्यों करती हूँ ये सब मै नहीं जानती पर तुम्हारे बगैर जीना भी तो नहीं जानती ; मेरे अस्तित्व की पहचान भी तुम्ही से है वर्ना इस विशाल सृष्टि के महासागर में मै भी न जाने कहाँ खो जाती , तुमसे दूर ..बेहद विकल और अधूरी सी होती हूँ ; एक विचलित अहसास मुझमे हलचल पैदा करता रहता है निरंतर ; जिससे घबराकर मै बार-बार.. लगातार तुम्हारे पास दौड़ी चली आती हूँ ; तुम्हारे पास आकर ही मेरी बेचैनी को कुछ ठहराव मिलता है; तुम्हारे आगोश में कुछ पल के लिए ही सही पर पूर्ण होने का अहसास होता है, पर न तो तुम्हारी सामर्थ्य इतनी है की तुम मुझे रोक सको और न ही मेरी की मै रुक सकूं ; तुम्हारी प्रकृति है --बेहद स्थिर और मेरी -- निरंतर गतिमान; हम दोनों ही बिलकुल विपरीत हैं पर एक दुसरे के बिना अपूर्ण भी ; इसीलिए मै बार -बार तुम तक आती रहूंगी अपनी परिपूर्णता के लिए और तुम बार-बार नम होते रहोगे अपने अस्तित्व के लिए ; और यही हम दोनों के लिए निर्धारित सुख भी है और श्राप भी; अनंतकाल से न जाने कब तक..बस यूँ ही !! |
उमेश कुमार तिवारी प्रिये, प्रियेतम , सुन्दर, सुन्दरतम ताल, वाध्य, राग, रागनी छंद, मुक्तक, नज़्म, गज़ल स्वर, व्यंजन और गीत मीत सभी तुम ......... |
नीरज पाल प्यार की हर सुबह हो प्यार की हर शाम हो ये जिंदगी हर एक की बस प्यार के ही नाम हो प्यार जब इतना ज़रूरी है इस ज़हां में तो प्यार करने वाले भला क्यों फिर बदनाम हों |
सबसे पहले आप सभी प्रेम दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं,
ReplyDeleteआपका अपने सभी अपनों के साथ प्रेम फलता फूलता रहे यूँ तो भावना से भरा दिल प्रेम को प्रदर्शित करने को किसी तय दिन का मोहताज़ नहीं ,फिर भी ये चलन सबको मुबारक हो दिल से.........
मैंने " उड़ान अंतर्मन की " यहाँ पोस्ट सभी कवियों के पोस्ट पढ़े सभी रचनाएँ अपने आप में बहुत ही उतम प्रेम भाव पिरोये है सभी साथियों को आभार ......और अंजू जी, यशवंत जी को जितनी शुक्रिया दे सकूँ कम है | उनके ही सहयोग से सभी साथी अपने रचनाओं का संसार एक जगह समेट पायें........
संगीता स्वरूप आंटी जी की मेल पर प्राप्त टिप्पणी--
ReplyDeleteइस ब्लॉग पर मैं टिप्पणी नहीं कर पा रही हूँ ... बहुत सुंदर प्रस्तुति है
मैं मल्होत्रा जी से 100% सहमत हूँ.... ! मेरे पास भी वही शब्द थे.... :)
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी प्रस्तुति ...के साथ ही सराहनीय भी ...बधाई सहित शुभकामनाऍं आप सभी को ...
ReplyDeleteRashmi Prabha जी की मेल पर प्राप्त टिप्पणी--
ReplyDeleteप्रेम के साथ तो भावों की अपनी उड़ान होती है ... पर चाय की चुस्की चुराकर अमितेश जैन ने , लहरों और किनारों की बातों से अर्चना राज जी ने , खुश्बू सिंह ने अपनी ख़ुशी एक दायरे में बताकर ,सुशील कृष्णेत के शब्द - " तुम्हारा होना उतना नहीं होता जितना तुम्हारा न होना ... " और क्रम से आते हर क़दमों ने अपनी गहरी छाप छोड़ी है . सबको शुभकामनायें
अनंत शुभकामनाएं
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, प्रेम कविताएँ यहाँ भी आप पढ़ सकते हैं--
ReplyDeletehttp://www.anubhuti-hindi.org/sankalan/prem_kavitayen/index.htm
"prem banam astitaw" archana jee kya khub kalpana ka sagar hai, kya khub racha hai lahron sang kinare ki mohabbat-e-dastaan,jharne ki tarah barasti aapki shabd rachna aur prem ki mithi khusboo liye mad-mast karti har mod pe aanand barsa rahi hai ,,,,bahut bahut sundar...
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