Friday 8 June 2012

अनुपमा पाठक की अनूदित रचनाएँ

नुवाद कार्य अपने आप मे बहुत कठिन कार्य है और यह कठिनाई तब और बढ़ जाती है जब अनुवादक किसी विदेशी भाषा की रचना को अपनी मातृ भाषा मे रूपांतरित कर प्रस्तुत करना चाहता हो;क्योंकि अनुवादित रचना यदि अंश मात्र भी मूल रचना की भावना को अभिव्यक्त न कर पाई तो अनुवादक की सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है।

मूल रूप से जमशेदपुर से संबंध रखने वाली तथा वर्तमान मे स्वीडन प्रवास कर रहीं अनुपमा पाठक  (जिनके नाम से हिन्दी ब्लॉग जगत मे शायद ही कोई अपरिचित होगा  ) अनुवाद के इस कार्य को ब-खूबी अंजाम दे रही हैं  और वर्तमान मे स्वीडिश भाषा की कुछ महत्वपूर्ण रचनाओं को हिन्दी भाषा तथा देव नागरी मे सफलता पूर्वक रूपांतरित कर रही हैं।  उनके अनुवाद में न केवल मूल भाषा की आत्मा को जीवंत पाया जाता है  अपितु कविता से उनका जुडाव सहज ही निखर कर सामने आता है!



(अनुपमा पाठक  )


'उड़ान अन्तर्मन की ' के आज के अंक मे हम ले कर आए हैं अनुपमा जी की कुछ चर्चित अनूदित रचनाएँ।


1)  टॉमस ट्रांस्त्रोमर की एक कविता


दो सत्य”


दो सत्य
एक दूसरे के पास आते हैं
एक आता है भीतर से
एक आता है बाहर से
और जहां मिलते हैं दोनों, वहीँ है इंसान के पास
एक मौका स्वयं को देख पाने का.

2) वोल्फ स्च्रन्क्ल की एक कविता


“यात्री के उद्देश्य”


मैं जीता हूँ
हमेशा एक यात्रा पर गायब रहने के लिए

सुबहें कभी भी एक ही स्थान पर
मुझे हर रोज़ अचंभित नहीं कर सकती

मैं ऐसा किसी विशेष कारण
के तहत नहीं करता

हो सकता है मैं जन्मा ही होऊं
यात्री के जूतों के साथ
या शायद हूँ
थोड़ा सा पागल

या फिर केवल इतना ही कि चाहता हूँ
कॉफ़ी से
सदा अलग अलग सुगंध आती रहे.

3) गुन्नर इकेलोफ़ की एक कविता


”हर एक इंसान अपने आप में एक दुनिया है”


हर एक इंसान अपने आप में एक दुनिया है, जीवों से भरा हुआ
जो हैं अंधे विद्रोह में
अपने आप के ही खिलाफ जो राजा सम राज करता है उन पर.
हर आत्मा में एक हजार आत्माएं बंदी हैं,
प्रत्येक दुनिया में एक हजार और दुनिया है छिपी हुई
और ये अंधी, ये छिपी हुई दुनिया
असल है और जीवंत है, हालांकि अपरिपक्व है,
उतनी ही सच्ची जितना कि सच्चा मेरा अस्तित्व है. और हम राजा लोग
और हमारे भीतर उपस्थित हज़ार संभावित राजकुमार
स्वयं ही विषयों के दास हैं, स्वयं ही बंदी हैं
किसी दिव्य आकृति में, जिसके अस्तित्व और स्वरुप को
उसी रूप में लेते हैं हम जैसे हमारे वरिष्ठ लेते हैं
अपने वरिष्ठों को. उनकी मृत्यु और उनके प्रेम से
हमारी अपनी भावनाओं ने पाया है एक रंग.

जैसे कि जब एक बेहद शक्तिशाली स्टीमर गुज़रता है
सुदूर, क्षितिज पर, वहाँ होती है
बेहद चमकीली शाम. -और हम नहीं जानते कि
जबतक एक लहर पहुँचती है समुद्री तट पर हम तक,
पहले एक, फिर एक और फिर अनगिनत
करती है शोर और धड़कती है तब तक जबतक कि सबकुछ नहीं हो जाता
पूर्ववत. -सब कुछ फिर भी अलग ही होता है.

फिर हम एक विलक्षण चिंता कि छाया में होते है
जब कुछ संकेत हमें बताते हैं कि लोग यात्रा कर चुके हैं,
कि उनमें से कुछ को संभावित मुक्ति मिल चुकी है.


4) वर्नर वोन हेइदेन्स्तम की एक कविता


“लम्बी पैदल यात्रा”


मैं वापस चलता हूँ उस पुल पर, जो ले जा रही है
पृथ्वी से दूर अपरिचित की ओर
और स्वयं दूरी बन जाता हूँ मैं जो पहले कभी था.
वहां नीचे हो रही है आलोचना और चल रहा है विरोध
और तीर चल रहे हैं युद्ध की परंपरा के अंतर्गत,
लेकिन जहाँ मैं जा रहा हूँ, वहाँ देखता हूँ, कि सही और सम्माननीय
मेरे दुश्मनों के कवच पर भी अंकित है.
जीवन का स्वर अब मुझे और भ्रमित नहीं कर सकता.
मैं इतना अकेला हूँ जितना कि एक इंसान हो सकता है,
लेकिन स्पष्ट है अंतरिक्ष, ऊँचा और स्थिर,
और मैं स्वयं को भूल चुका हूँ और स्वतंत्र विचर रहा हूँ.
मैं अपने जूते ठीक करता हूँ और छड़ी फेंक देता हूँ.
मैं चुपचाप वहाँ जाऊँगा, और धूल धुंधला कर सकेगी
उस दुनिया को, जहाँ सबकुछ शुद्ध श्वेत है बर्फ़ की तरह.
वहाँ नीचे वे ढ़ोते हैं एक बार कब्र तक
एक दीन इंसानी मिट्टी और बुदबुदाते हैं
एक नाम - वह नाम, जो कभी मेरा था.


5)हेनरी पर्लैंड की एक कविता


”ईश्वर की पहली कृति”


ईश्वर की पहली कृति
शून्य है.
आसमान ने धारण कर रखा है उसे,
सितारे भी वही हो जाने वाले हैं.
वह स्वयं भी वहीँ स्थित है.

उसकी अंतिम कृति
लौ है,
जो सब चीजों में छलती है.
क़यामत वाले दिन
इसकी चमक
जीवन को भस्म कर डालती है,
जो एक भड़कदार नक़ाब की तरह
छिपा लेता है
ईश्वर की पहली कृति को.

6) विल्हेल्म इकेलुन्द की एक कविता



"हे कविता!"



हे कविता!
वो हिम्मत नहीं करेगा
आने की तेरे निकट,
जिसकी आत्मा में निहित नहीं हैं
सपने,
सपने देखने की पर्याप्त उर्जा
सपने सजाने की हिम्मत -
शब्द!
शब्द का पुनर्जन्म.

है जिनके गर्जन में-: "यथार्थ अज्ञात है!"
हर उस बात के लिए जिसमें सांस लेती है आस्था,
वास्तविक जीवन का उत्साह;
हैं वो शब्दों को खड़खड़ाने वाले,
उनकी आत्मा ने कभी नहीं चखी
स्वप्न की मदिरा,
शब्द का रक्त.

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प्रस्तुति-यशवन्त माथुर,
सहयोग-अंजू शर्मा