प्रिय मित्रों,प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाई | राजा प्रजा जिस रुचे, सीस देय ले जाई || संत कबीर ने कहा है कि प्रेम को न तो खेत में उत्पन्न किया जा सकता है और न ही यह बाज़ार में मोल बिकता है, प्रेम में कोई छोटा या बड़ा नहीं होता, स्वत्व को त्याग कर ही प्रेम को पाया जा सकता है! ऐसे प्रेम को अपने शब्दों के द्वारा बहुत ख़ूबसूरती से चित्रित किया है हमारे कुछ साथियों ने! हम आभारी हैं सभी के, जिन्होंने इतने कम समय में अपनी सुंदर रचनाएँ हम तक पहुंचाई! इस वासंती रुत में हर ओर केवल प्रेम ही प्रेम है! आप भी सुंदर प्रेम कविताओं का आनंद उठाइए ! हम इस ब्लॉग का दूसरा भाग “ढाई आखर प्रेम के –2 ” प्रस्तुत कर रहें हैं, इस उम्मीद के साथ कि प्रेम के इस रंग में आप भी सराबोर हो जायेंगे .................... इस भाग में जिन कवियों की कवितायेँ प्राप्ति के आधार पर सम्मिलित की गयी हैं उनके नाम इस प्रकार हैं...... २. बसंत जेतली ३. लीना मल्होत्रा ४. श्याम जुनेजा ५. पूनम मटिया ६. डॉ. धनंजय सिंह ७. लोकमित्र गौतम ८. विवेक कुमार तिवारी ९. शोभा मिश्रा १०. गुंजन अग्रवाल ११. माधवी पाण्डेय १२. शैलेन्द्र कुमार सिंह १३. रीना मौर्या १४. रेखा सक्सेना १५. अनंत भारद्वाज १६. शैलेन्द्र चौहान १७. सुषमा वर्मा 'आहुति' १८. रश्मि शर्मा १९. जमशेद सिद्दीकी २०. नोरिन शर्मा udaanantarmanki.blogspot.com |
महेश पुनेठा लगातार जारी है कोशिश सदियों से, कल्पों से तथाकथित नैतिकताओं के मंत्रों से सुखाने की उसे लगातार जारी है कोशिश जाति, धर्म और उम्र के बंधनों में जकड़ने की उसे लगातार जारी है कोशिश सूली में चढ़ाकर सर कलम कर सरेआम नंगा घुमाकर उसके पात्रों को डराने-धमकाने की पर प्रेम है कि कठोर से कठोर दमन शिला के नीचे से भी प्रस्फुटित हो ही पड़ता है हरी-भरी दूब की तरह फिर एक नई कोमलता, सहजता और ताजगी के साथ। |
बसंत जेतलीयादमचलती यह साध मुखर होती याद की गर्दन दबा दूं । आज मन के कैनवस पर चित्र तेरा बहुत गहरा हो उठा है , एक कूंची उठे जबरन निठुरता से क्रॉस कर जाए तुम्हारे रूप को । तुम्हारे नाम के आगे ( जो धमनियों में एक सिहरन पूर देता ) कलम से ऐसा विशेषण एक झर जाये जिससे तुम्हे चिढ़ हो । एक ऐसा प्रबल झोंका जन्म ले जो तुमसे जुडी हर वस्तु को धुंए सा तोड़ डाले उडादे दूर । लेकिन न जाने क्यों होता नहीं कुछ , लाचारी इतनी बढ़ी है की सहम कर स्वयं में ही सिमटने लग गयी है , और तुम्हारी याद गहरी , और गहरी ....... और गहरी । |
लीना मल्होत्रा ऊब के नीले पहाड़ कितना कुछ है मेरे और तुम्हारे बीच इस ऊब के अलावा यह ठीक है तुम्हारे छूने से अब मुझे कोई सिहरन नही होती और एक पलंग पर साथ लेटे हुए भी हम अक्सर एक दूसरे के साथ नही होते मै चाहती हूँ कि तुम चले जाया करो अपने लम्बे लम्बे टूरों पर तुम्हारा जाना मुझे मेरे और करीब ले आता है तुम्हारे लौटने पर मैंने संवरना भी छोड़ दिया है तुम्हारी निगाहों से नही देखती अब मै खुद को यह कितनी अजीब बात है कि ये धीरे धीरे मरता हुआ रिश्ता कब पूरी तरह मर जाएगा इसका अहसास भी नही होगा हमें लेकिन फिर भी तुम्हारी अनुपस्थिति में जब किसी की बीमारी कि खबर आती है तो मुझे तुम्हारे सुन्न पड़ते पैरों कि चिंता होने लगती है कोई नया पल जब मेरी जिंदगी में प्रस्फुटित होता है तो बहुत दूर से ही पुकार के मै तुम्हे बताना चाहती हूँ कि आज कुछ ऐसा हुआ है कि मुझे तुम्हारा यहाँ न होना खल रहा है कि तुम ही हो जिससे बात करते वक्त मैं नही सोचती की यह बात मुझे कहनी चाहिए या नहीं. और जब मुझे ज्वर हो आता है तुम्हारा हर मिनट फ़ोन की घंटी बजाना और मेरा हाल पूछना शायद वह ज्वर तुम्हारा ध्यान खींचने का बहाना ही होता था शुरू में लेकिन अब इसकी मुझे आदत हो गई है और मै दूंढ ही नही पाती वो दवा जो तुम रात के दो बजे भी घर के किसी कोने से ढूढ़ के ले आते हो मेरे लिए और सिर्फ तुम ही जानते हो इस पूरी दुनिया में कि सर्दियों में मेरे पैर सुबह तक ठंडे ही रहते हैं कि मुझे बहुत गर्म चाय ही बहुत पसंद है कि आइस क्रीम खाने के बाद मै खुद को इतनी कैलरीज खाने के लिए कोसूँगी ज़रूर कि तुम्हारे ड्राईविंग करते हुए फ़ोन करने से मैं कितना चिढ जाती हूँ कि जब तुम कहते हो बस अब मै मर रहा हूँ तो मै रूआंसी नही होती उल्टा कहती हूँ तुमसे ५० लाख कि इंशोरेंस करवा लो ताकि मैं बाकी जिंदगी आराम से गुज़ार सकूँ और फिर कितना हँसते हैं हम दोनों इस तरह मौत से भी नही डरता ये हमारा रिश्ता तो फिर ऊब से क्या डरेगा ?? ये हमारे बीच का कम्फर्ट लेवल है न यह उस ऊब के बाद ही पैदा होता है क्योंकि किसी को बहुत समझ लेना भी जानलेवा होता है प्रिय कितनी ही बाते हम इसलिए नही कर पाते कि हम जानते होते हैं कि क्या कहोगे तुम इस बात पर और कैसे पटकुंगी मैं बर्तन जो तुम्हारा बी पी बढ़ा देगा और इस तरह ख़ामोशी के पहाड़ों को नीला रंगते हुए ही दिन बीत जाता है. और उस पहाड़ का नुकीला शिखर हमारी नजरो की छुरियों से डरकर भुरभुराता रहता है और जब तुम नही होते शहर में मैं कभी सुबह की चाय नही पीती अखबार भी यूँ ही तह लगाया पड़ा रहता है खाना भी एक समय ही बनाती हूँ तब वह नीला रंगा पहाड़ धूसरित रंग में बदल जाता है फोन पर चित्र नही दिखते इसलिए जब शब्द आवश्यक हो जाते हैं और तुम पूछते हो क्या कर रही हो मैं कहती हूँ बॉय फ्रेंड की हंटिंग के लिए जा रही हूँ तुम शुभकामनाये देते हो और कहते हो की इस बार कोई अमीर आदमी ही ढूँढना ये डार्क ह्यूमर हमारे रिश्ते को कितनी शिद्दत से बचाए रखता है और इस ऊब में उबल उबल कर कितना गाढ़ा हो गया है ये हमारा रिश्ता |
श्याम जुनेजा वह एक पल जब उस कलाकार ने तुम्हें कैमरे में उतारा होगा कितना कुछ तय कर गया मेरी मंजिलों-मुकाम का रुतबा तुमसे मेरा रिश्ता मेरी महबूब अखबार में छपी तेरी तस्वीर मैं तो देखूँगा तेरी तस्वीर और शब्दों को करने दूंगा अपना काम जिन्हें मैंने जन्मों से पाल रखा है मधु-मक्खियों और तितलियों की तरह कितनी मूंगफलियों का लिफाफा बनी होगी तेरी तस्वीर यह जो मेरे हिस्से में चली आयी है बनाएगी कितने लिफाफे मेरे दिल के ओ मरीचिका ! |
पूनम मटिया भीगी सी शाम .....भीगे से अरमान एक हसीं शाम के हंसी लम्हों की अधूरी सी कहानी आज कुछ यूँ पढ़ने में आई मेरे ज़हन में वो भूली हुई यादें लौट आयीं वो काँधें पर उसके गीलें गेसुओं की छटा मानो अभी -अभी चंदा पर से कोई बादल हटा बूंदों का यूँ उसके रुखसारों को छू कर गुज़रना मेरे दिल पर एक बिजली का कौंध जाना ऋतू बसंत हो या सावन की फुहार उसके बदन से बहे हमेशा फूलों सी बयार महके हुए अरमानो से जिस्म बहक जाएँ यूँ याद उसकी छुअन मुझको आज भी महकाए...... |
डॉ धनंजय सिंह प्रेम गीत मौन इतना मुखर हो उठे जो ह्रदय पुस्तिका -पुस्तिका खोल दे और जब एकरसता बढ़े भावना ही स्वयं बोल दे इस तरह मन बहलाता रहे सर्जनाएँ सदा हों सफल !...... पास भी दूर भी हम रहें जिंदगी किन्तु हँसती रहे मान-मनुहार की ,प्यार की यास प्राणों को कसती रहे इस तरह चिर पिपासा मिटे और छलकता रहे स्नेह -जल !..... |
लोकमित्र गौतम इश्क की कोई उम्र नहीं होती मेरी जान जब डूबते सूरज को मैंने पर्वत चोटियां को चूमते देखा जब बाग के सबसे पुराने दरख्त को मैंने नई कोंपलो से लदे देखा तो समझ गया पफूल की तरह खिल जाने खुश्बू की तरह पफैल जाने और गले से लगकर मोम की तरह पिघल जाने की कोई उम्र नहीं होती मेरी जान... तुम्हें ताउम्र शिकायत रही कि मुझमें ध्ैर्य क्यों नहीं है तो सुनो आज मैं बताता हूं मैंने खुद को तिनके तिनके जोड़कर बनाया है मुझमें इस ध्ूप का इस बारिश का इस हाड़ कंपा देने वाली ठंड का सबका थोड़ा थोड़ा हिस्सा है मुझमें इसलिए बदलते मौसमों में मैं अपने सहज परिवर्तनों को भला कहां छिपाउफंगा.. मेरी जान मैं किसी माइक्रोसाफ्रट का साफ्रटवेयर नहीं हूं कि एक ही बार में प्रोग्राम कर दिया जाऊं ताउम्र के लिए और फिर हमेशा हमेशा के लिए मेरी हरकतें किसी माउस के इशारे की गुलाम हो जाएं... मैं हर मौसम के लिए बेकरार पंछी हूं मेरी जान... मुझे चाहे मोतियां चुगाओ या रामनामी पढ़ाओ जिस दिन धोखे से भी पिंजड़ा खुलेगा मैं वफ़ादारी नहीं दिखाऊंगा फुर्र से उड़ जाऊंगा और डाल में बैठकर आजादी से पंख फडफडाउंगा क्योंकि बगावत की कोई उम्र नहीं होती मेरी जान... गर्व में तन जाने हक के लिए लड़ जाने और जरुरत पड़े तो बारूद की तरह फट जाने की कोई उम्र नहीं होती तुमने गलत सुना है कि अनुभवी लोगों को गुस्सा नहीं आता अनुभव कोई सैनेटरी पैड नहीं है जो तुम्हारी ज्यादती का स्राव सोख ले अनुभवी होने से कोई कुदरती कुचालक नहीं हो जाता कि अपमान की विद्युतधरा उसमें बहे ही न अपमान के हमले से जब तिलमिलाता है अनुभव तो उसके भी हलक से निकल जाता है बेसाख्ता समझदारी गई तेल लेने लाओ मेरी खंजर लो संभालो मेरा अक्लनामा क्योंकि नफरत की कोई इंतहां नहीं होती और अक्लमंदी की कोई मुकर्रर उम्र नहीं होती मेरी जान... मैं तुम्हें क्यों याद दिलाऊँ कि जब हम तुम पहली बार मिले थे उस दिन अचानक तेज बारिश होने लगी थी और कापफी दूर तक हम दोनो भीगते हुए साथ साथ चले थे अगर तुम्हारी याद्दाश्त कमजोर है तो इसका खामियाजा तुम भुगतो मैं तुम्हारी याद्दाश्त दुरुस्त करने की टिकिया क्यों बनूं क्योंकि ये तुम भी जानती हो और ये मैं भी जानता हूं कि याद्दाश्त किसी क्रिया की जरुरी प्रतिक्रिया नहीं है याद्दाश्त का रिश्ता याद करने की चाहत से होता है याद करने की क्षमता से नहीं मेरी जान... इश्क को उम्र की डोर से बांधना मनोविदों की सिफारिश से किया गया समाजशास्त्रियों का धोखा है इश्क को हारमोंस की व्युत्पत्ति बताना जीव वैज्ञानिकों का शरीर विज्ञानियों के साथ मिलकर किया गया धोखा है इश्क को वैलेंटाइन डे का कर्मकांड बनाना कारोबारियों का धोखा है तो इश्क की तिजारत बुद्धिजीवियों का धोखा है मेरी जान मुझे वास्ता न दो मुझे सबूत न दो मुझे क्या काम है परिस्थितिजन्य साक्ष्यों से सबूत ही चाहिए होगा तो झांक लूंगा तुम्हारी इन दूज के चांद सी आंखों में मोहब्बत कभी भी सात पर्दों में सिमटकर नहीं बैठती मोहब्बत बड़ी बेपर्दा होती है मेरी जान... |
विवेक कुमार तिवारी कुछ न कहो ये मनभावन अनजानी सी सूरत , हर पल कह जाती बार बार , छुपे हो कहा ये मनभावन, हमरे दिल को कर तार तार . तुम ही तो कहते थे हम मिलेगे कही किसी किनारे पर बार बार , पर वो पल भी गुजर चुके है हजार बार , पर अब तक न झलकी वो सूरत . जिसके लिए तरस रहे है हम अपनी नैनों को कर बे करार , कुछ कहो या फिर चुप रहो , पर एक वादा कर जायो मेरे मानुहार, दिल में बसे हो,दिल में ही रहो , अब चाहे समंदर बदले अपनी दिशा हर बार , प्रीतम को तरस गए थे दिल , पर अब वो गए हमरे दिल के द्वार , अब मिल गया हमें प्यार प्यार ........... |
शोभा मिश्रा एक कविता अधूरी सी है शब्दों में ढली थी मुस्कुराकर उदित हुई थी भोर की लाली लेकर मध्य में आकर थमीं सी है कुछ शब्द चहके थे चिड़ियों से अंधियारों में वो चहक खोयी सी है रात रात भर भटक रहे ठहरते नहीं एक भी शब्द वो कहाँ से लाऊं खोजती ये आँखें कई रातों से सोयी नहीं है एक कविता अधूरी सी है ......... |
गुंजन अग्रवाल सुनो कई दिन से मन है.. एक चरस वाली सिगरेट पीने का सुनो !! कई दिन से मन है एक चरस वाली सिगरेट पीने का एक गहरा-सा आदिम कश लगाने का मुहँ से लेकर फेफर्ड़ों तक और फिर आत्मा तक धुआं-धुआं हो जाने का एक स्वप्निल .. ज़हर बुझी दुनिया में जाने का स्सस्सस्स ..... इश्क के आसमान से एक गहरी छलांग लगाने का धरा को छू फिर एक लम्बी उड़ान लेने का वहाँ तक जाने का जहाँ इश्क के फूल खिला करते हैं वहाँ, जहाँ फ़रिश्ते गले मिला करते हैं मर जाने का ... हाँ तुम्हारे इश्क में फ़ना हो जाने का सुनो !!!!!! कई दिन से मन है तुम्हारे सीने पे सर रख कर सो जाने का .... |
माधवी पाण्डेय एक खामोश शाम और नदी का उदास चेहरा रात ने फैला दिया अपना सुरमई आँचल कि ढँक ले उसके चेहरे के भावोँ को जो प्रतिबिम्बित है लहरोँ मेँ पर हवा की चंचलता ने ऐसा करने न दिया कि चाँदनी मेँ उठ कर गिरीँ पलकेँ और घिर आया आँखोँ मेँ शून्य जैसे घिर आए होँ मेघ आँखेँ बरसीँ भी घनघोर चाँद ने जरा झुक कर पूछा हौले से - क्यूँ है ये बेज़ारी, कुछ तो कहो ? उसने मौन को तोड़ा नहीँ भाव मेँ अपने शब्द कोई जोड़ा नहीँ तभी आह भर कर सिक्ता कणोँ ने देखा किनारोँ को लाचारी से और एक नज़र डाली चाँद पर चाँद मुस्कुराया होँठोँ मेँ ही और खिँच गई दर्द की एक गहरी रेखा बह गई नदी की नम आँखोँ से पीड़ा की एक धार याद आया कूल-प्रतिकूल से मिलना, बिछड़ना और उसका प्यार बहने से पहले धारा ने फिर देखा एक बार किनारोँ को, फिर शाम हवा और चाँद को देखा आखिरी नज़र एक बार फिर गुज़रते वक्त के दौर मेँ रह गया तन्हा, खामोश शाम और नदी का उदास चेहरा. |
शैलेन्द्र कुमार सिंह तुम नही समझोगे जिस जार में 'भीतर ' तुमने प्रीति का मुरब्बा रखा था वह 'बाहर' हाथ से छूट टूट गया है (उस पर फफूंद जम गयी थी ) मैंने उसे आँगन की धूप दी थी टूटा हुआ कांच मेरे 'बाहर' से 'भीतर ' तक बिखरा है जाने क्यों मै चाहता हूँ वह मुझे चुभता रहे हौले -हौले दुखता रहे मुझे अच्छा लगता है तुम नहीं समझोगे ........... |
रीना मौर्या क्योंकि ....शायद मै तुमसे मिलीपहली बार मुझमे खुशियो का आगाज हुआ पहली बार मुझे मेरे रूप का आभास हुआ पहली बार मन मोहिनी हवा चली क्योंकि ,,,, शायद मै तुमसे मिली. पहली बार तेरे मेरे नैनो का मेल पहली बार मै उंगलियों से खेल रही हु खेल शरमाई आँखे मेरी झुक गयी क्योंकि ,,,,,, शायद मै तुमसे मिली पहली बार हुआ प्यार का अहसास पहली बार हुआ दिल बेक़रार हर वक़्त मिलने की तमन्ना जगी क्योंकि ,,,,,, शायद मै तुमसे मिली पहली बार मै तुमसे मिलने आई वो सुकून भरी ख़ुशी तूम्हारी आँखों में झाई पहली बार हुई शब्दों में बातो की शुरुवात पहली बार जगे दिल में नए अहसास पहली बार मै फूल की तरह खिली क्योंकि ,,,,,,,शायद मै तुमसे मिली पहली बार दिल ने कुछ सपने बुने पहली बार उपहार देने के लिए मैंने कुछ फूल चुने पहली बार मन गुदगुदाया और हुई ख़ुशी से मै बावरी क्योंकि ,,,,,,,,,शायद मै तुमसे मिली...... |
रेखा सक्सेना प्यार कोई बोल नहीं मौन की होती है , अपनी एक विशिष्ट भाषा, जिसे चीन्ह सको तो चीन्ह लो , क्यों पहनाऊं मैं अपनी, प्रेम-तरंगों को मखमली शब्दों के, आलंकारिक परिधान, क्यों भागी बनूँ अपयश की, अपनी भावनाओं को , अभिव्यक्ति के स्वर देकर, मैंने तो कभी माँगा नहीं, तारों जड़ा आसमान या चाँद सा कंदील , न ही चाही कभी सप्तपदी , या तुम्हारे वामांग में बैठने की प्रतिष्ठा , मेरे मौन प्रेम ने तुम्हे, छिपा रक्खा है अहसासों में, जानती हूँ मेरे मुखर प्रेम को , ये जगती सह न पाएगी , चरचे होंगे, हंसी उडाई जाएगी , पहरे होंगे साँसों की सरगम पर, जाने कितने इलज़ाम लगेंगे , सजा सुनाई जाएगी . इसीलिए इस आवारा मन को, बाँध लिया है परिधि में , आँखों को भी बंद कर लिया, कहीं किसी से चुगली न कर दें पर तुम ,तुम जो पाए हो मुझी से देवत्व, क्यों ठान बैठे हो जिद , प्रेम की अभिव्यक्ति की , पढना है तो स्वयं पढो , मौन प्रेम की भाषा , सुनना है तो सुनो ,खामोश प्रेम की आवाज , और अहसास करो प्यार की महकती खुशबू का . |
अनन्त भारद्वाज स्मृतियाँ उन प्यार करने वालों के नाम जिन्हें अपनी बीती ग़ज़ल हर रोज याद आती है, और दिल भूलना चाहता है उस परी को... पर आँखें भी.. क्यूँ हर दिन अज़ीब से मंज़र दिखाती है , कि उसकी यादों की ओढ़नी रोज़ कुछ घटनाओ के सहारे उडी चली आती है,, उन्ही छोटी - छोटी प्यार भरी घटनाओ को समेटती एक कविता स्मृतियाँ ..... हर आस मिटा दी जाती है, हर सांस सुला दी जाती है... फिर भी यादों के पन्नो से कुछ स्म्रतियाँ चली आती है... उन यादों में खो जाता हूँ, बस तू ही दिखाई देती है, ठीक उसी पल दरवाजे पर एक आहट सी सुनाई देती है, हम बिस्तर से दरवाजे तक दौड़े - दौड़े फिरते हैं , पर वो तो हवा के झोकें थे जो मजाक बनाया करते हैं , दिल घर की छत के एक किनारे बैठा आहें भरता है, दो हंसो का जोड़ा नदिया के पानी में क्रंदन करता है, जब हंसो के करुण विनय से नदिया तक भर जाती है, तब यादों के पन्नो से कुछ स्म्रतियां चली आती है. उन भूली - भटकी यादों को कैसे मैंने बिसराया है, तेरे हर ख़त को मैंने उस उपवन में दफनाया है, उन ख़त के रूठे शब्दों से पुष्प नहीं खिल पाते है, शायद तेरे भेजे गुलाब मुझे नहीं मिल पाते है, जन्मदिवस की संध्या पर जब जश्न मनाया जाता है, सारा घर भर जाता है हर कक्ष सजाया जाता है जब वो भुला चुकी है मुझको तो हिचकी क्यूँ आ जाती है ? तब यादों के पन्नो से कुछ स्म्रतियां चली आती है. अर्धरात्रि के सपनों में वो सहसा ही आ जाती है, मेरे सुन्दर समतल जीवन में तरल मेघ सी छा जाती है, प्रथम बिंदु से मध्य बिंदु तक मुझे रिझाया करती है, मध्य बिंदु से अंत तक वो शरमाया करती है, मैं अक्सर खिल जाता हूँ जब वो अधरों को कसती है, बिलकुल बच्ची सी लगती है जब वो होले से हँसती है, जब रोज़ सवेरे उसकी बिंदिया टुकड़ों में बँट जाती है, तब यादों के पन्नो से कुछ स्म्रतियां चली आती है. शायद रूठ गयी है मुझसे या फिर कोई रुसवाई है, तेरे पाँव की पायल मैंने अपने आँगन में पाई है, आज अचानक खनकी पायल मुझको यूँ समझती है, अब और खनक ना पाऊँगी यह कहकर मुझे रुलाती है. और गली के नुक्कड़ पर जब कुछ बच्चे खेलने आ जाते है, घंटों हुई बहस में एक - दूजे का सर खा जाते है, जब वो छोटी लड़की उन सबको भाषण सा दे जाती है, तब यादों के पन्नो से कुछ स्म्रतियां चली आती है. कैसे मैंने उस नीले फाटक वाले घर का पता भुलाया है? क्यूँ नहीं पहले ख़त को उसने तकिये के नीचे सुलाया है? मैंने हर शाम उन उपहारों की होली जलती देखी है, उन उपहारों के साथ रखी वो कलियाँ ढलती देखी है, हम बंद अँधेरे कमरे में कविता तक लिख लेते है, पर कलम कागज के मध्य शब्द तेरे ही सुनाई देते है, जब प्रणय गीत लिखते - लिखते कलम अचानक रुक जाती है, तब यादों के पन्नो से कुछ स्म्रतियां चली आती है. |
शैलेन्द्र चौहान जीवनसंगिनी हाँ मैं तुम पर कविता लिखूँगा लिखूँगा बीस बरस का अबूझ इतिहास अनूठा महाकाव्य असीम भूगोल और निर्बाध बहती अजस्त्र एक सदानीरा नदी की कथा आवश्यक है जल की कलकल ध्वनि को तरंगबद्ध किया जाए तृप्ति का बखान हो आस्था, श्रद्धा और समर्पण की बात हो और यह कि नदी को नदी कहा जाए! जन्म, मृत्यु, दर्शन, धर्म सब यहाँ जुड़ते हैं सरिता-कूल आकर डूबा उतराया जाए इनमें पूरा जीवन इस नदी के तीर कैसे घाट-घाट बहता रहा भूख प्यास, दिन उजास शीत-कपास अन्न की मधुर सुवास सब कुछ तुम्हारे हाथों का स्पर्श पाकर मेरे जीवन जल में विलीन हो गया है. |
नही बता पाउंगी की साँसे लेती हूँ कैसे...........! तुम्हारे संग रहती हूँ ऐसे, दिया संग बाती हो जैसे.... तुमसे प्यार करती हूँ ऐसे, सागर में बूंद रहती हैं जैसे.... तुम्हारा इंतज़ार करती हूँ ऐसे, पिया के इंतज़ार में बरसो से पपीहा पुकारती हो जैसे..... तुम्हारे हर सफ़र पर साथ चलती हूँ ऐसे, तुम संग परछाई रहती हो जैसे...... तुम्हे खुद में महसूस करती हूँ ऐसे, दिल में धड़कने धड़कती है जैसे..... तुम्हे कैसे बताऊ, कि प्यार करती हूँ तुम्हे, कितना और कैसे? नही बता पाउंगी की साँसे लेती हूँ कैसे...........! |
रश्मि शर्मा हम तुम्हारे थे जाने किस जन्म की थी हसरत और कैसा था तुम्हारे आगोश का असर जब मिले हम तो यूं लगा तमाम उम्र इसी एक पल की चाहत में तो गुजारी है ..... न तुम अजनबी लगे न तुम्हारा स्पर्श पराया यूं लगा जैसे बाहों में सारा आकाश सिमट आया फूलों की हुर्इ रिमझिम सी बारिश मन भीगा तन पसीजा बंद पलकों को हुई जन्नत नसीब.... मीठे-मीठे अहसास हम पर तारी थे लब बेसाख्ता कह उठे हां...........हर जन्म से हम तुम्हारे थे। |
जमशेद सिद्दीकी DTC और प्रेम कहानियांDTC की सख्त सीटो में न जाने कितनी, नर्म और छोटी-छोटी प्रेम कहानिया ने जन्म लिया होगा। जो बिना संवाद के शुरू और ख़त्म हो गयी होंगी। जिनकी नज़रों ने भीड़ में एकांत को जन्म दिया होगा। और न जाने कितने लोग, किसी एक स्टॉप पर हमेशा के लिए बिछर गए होंगे, बिना रोये, बिना आखिरी सलाम और अलविदा कहे बगैर भी। कोई भी कथाकार इन कहानियों को नाम नहीं दे सकता। प्रेम-विज्ञान की किताबो में कहीं भी इनका ज़िक्र नहीं है। शायद किसी में हिम्मत नहीं थी। याद रखिये, इश्क और छिछोरेपन के बीच एक बहुत बारीक रेखा होती है। और इसी वजह से न जाने कितने टिकट, जिन पर कुछ लिखा होगा, किसी बस-स्टॉप पर मोड़ कर फ़ेंक दिए गए होंगे। ‘फिर मिलेंगे’ की उम्मीद से…. |
नोरिन शर्मा कल शाम के बाद उस लहराते हुए सागर ने मुझे बरबस भिगो डाला था ऊपर से नीचे तक.... चाँदनी का घेरा कुछ ज्यादा ही सघन था मेरे चारों ओर... और तभी तुम्हारा प्यार एक खुशगवार मौसम बन मेरे माथे पर लाल सूरज सा चिपक गया तब तुम्हारी आँखों की छुअन मैं महसूसती रही --सारी रात-- तप्त माथे पर । |
आप सभी प्रेम दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं , आपका अपने सभी अपनों के साथ प्रेम फलता फूलता रहे ......और अंजू जी, यशवंत जी को हार्दिक आभार.......
ReplyDeleteDhanywad Rajni ji
Deletesundar ati sundar jitni prasansa ke jaye kam.........anju g or mathur je ne kamall kar diya...............hardik badhai
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा है आपका यह नया ब्लॉग ,
ReplyDeleteप्रेमपगी सुन्दर रचनाओ का सम्मिलन
ब्लॉग की साज सज्जा ,सब कुछ एकदम मनमोहन है ...
प्रेम दिवस की सुन्दर प्रस्तुति.....:-)
Kripaya kisi publisher se baat kar inhen kitab kee shakla den to yah eh mahatva ka kaam hoga. Shubh kamanaon sahit.
ReplyDeleteShaikh Mohammad
banihal (J&K)
यद्दपि एक अच्छा प्रयत्न है परन्तु कविताओं के साहित्यिक स्तर पर भी ध्यान दिया जाता तो और सार्थक कार्य होता. दो- तीन कवितायेँ ही स्तरीय हैं शेष साधारण ही हैं.राम शरण शर्मा, २६ राजीव चौक, यूसुफ सराय, नई दिल्ली
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" शनिवार 27 अगस्त 2022 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
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