आज पढ़िये लखनऊ की युवा और
प्रतिभावान कवयित्री संध्या यादव की कविताएं !
संध्या यादव लखनऊ विश्व विद्यालय में पत्रकारिता की छात्रा हैं! कवितायेँ और लेख लिखती हैं! संध्या की कविताएं सादगी से अपनी ओर आकर्षित करती हैं! वे समसामयिक विषयों पर बराबर लिखती रही हैं! लेख हो या कवितायेँ उनकी कलम हर बार कुछ ज्वलंत प्रश्न उठाती रही है!
काश ज़िन्दगी का भी पाठ्यक्रम होता
काश ज़िन्दगी का भी पाठ्यक्रम होता
जो पढ़ी जा सकती नियत समय पर
त्रिभुज के लम्ब कर्ण की तरह
जब दूर जाने लगते सिरे एक दूसरे से
और हिम्मत माईनस में जवाब देने लगती
भावनाएं रासायनिक समीकरणों की तरह हो जाती
जोड़ घटा सकते अभिक्रिया हंसी और उदासी की
सोख जाते आंसू आँखों की प्रयोगशाला में
और शेष न बचता कुछ
प्रिज़्म से छानकर बिखर जाती भावनाएं
और पढ़ न पता कोई चेहरे का एक रंग
संवेदनाओं की प्रायिकता में
हर बार दिमाग के चुनने की सम्भावना होती
दिल न आता एक भी बार
हर दिन लागू कर सकते कोई प्रमेय
पर अजीब सा ग्रुत्वाकर्षण है
दिल दिमाग और भावनाओं के बीच
और ज़िन्दगी की गणित में फेल न होता कोई
आओ कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते
आओ कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते
थम
कर नफरत
की मशालें
बस्तियां
बहुत जलायीं
मजहबों
के नाम
पर
नींव
कोई गहरी
धरें दोस्ती
के वास्ते
आओ
कोई ख्र्वाब
बुने कल
के वास्ते
ये
ज़मीं थी
जो सरहदें
तय कर
लीं
नदियाँ
भी मोड़
दीं पर
समंदर
पे बस
चले कहाँ
आसमान
की चादर
तानें एक
छत के
वास्ते
आओ
कोई ख़्वाब
बुनें कल
के वास्ते
अब
महल दुमहले
लौटेंगे
खंडहरों
में वक़्त
की चाल
जानने
गीली
मिटटी है
जोश हमारा
आहिस्ता
चाक घुमाओ
नए सृजन
के वास्ते
आओ
कोई ख़्वाब
बुनें कल
के वास्ते
पंख
पसार दिए
हैं मैंने
सपनों
के असीम
गगन में
हौसला
तुम मेरा
बनो उड़ान
के वास्ते
आओ
कोई ख़्वाब
बुने कल
के वास्ते
नैनों
का ये
अजब चलन
है
न
कुछ तुम
कहो
चुप
हम भी
रहे परिचय
के वास्ते
आओ
कोई ख़्वाब
बुने कल
के वास्ते
जंग
खा गयी
ज़बान क्यूँ
माननीय
बैठकों के
फरमान पर
चलो
हम तलवार
बनें उस
धार के
वास्ते
आओ
कोई ख़्वाब
बुने कल
के वास्ते
फासले
हुए तो
क्या
एक
क़दम तुम
चलो
एक
क़दम हम
चलें
और.........
जानकर
लड़खडाएं एक
दुसरे को
थामने के
वास्ते
आओ
कोई ख़्वाब
बुने कल
के वास्ते
देशों
के झगडे
सुलझ रहे
विश्व
की अदालत
में
प्रेम
पर कचहरी
लगती
हमारी
चाँद चौपालों
में
उठे
कि कोई
ऊँगली जानिब
हमारे
इससे
पहले हम
जवाब बनें
उस सवाल
के वास्ते
अओक
कोई ख़्वाब
बुनें कल
के वास्ते
औरत
हर तीज त्यौहार पर
होती
है तुम्हारी
पूजा
घंटे
घड़ियाल बजाकर
नैवेद
चढ़ाये जाते
हैं
तुम्हारे
सामने शीश
झुकाकर
तुमसे
ही छुटकारा
पाते
हैं
नवरात्रों
में महिषासुर
मर्दन
करने
वाली
दहेज़
की ख़ातिर
गहरी
नींद में
ही
जिंदा
जला दी
जाती है
अजंता
एलोरा की
गुफाओं में
उकेरे
गए तुम्हारे
बिम्ब
सदियों
से हिस्सा
हैं
हमारी
महान संस्कृति
का
फिर
क्यूँ पैरहन
पर तुम्हारे
प्रश्नचिन्ह
उठाये जाते
हैं
बांधती
हो ढेरों
और दुआएं
बुरी
नज़र से
बचाने के
लिए
फिर
एक दिन
अचानक
भरे
बाज़ार में
डायन
करार
दी जाती
हो
सहन
नहीं होती
छोटी सी
चोट
भी जिगर
के टुकड़े
की
हंसी
आती है
तुम पर
जब
जिस्म पर
पड़े
काले
निशान
बाथरूम
में गिरी
थी
कहकर
छिपा ले
जाती हो
सचमुच!
ज़वाब
नहीं तुम्हारा
कभी
सीता बनकर
अग्नि
परीक्षा देती
हो
तो
द्रौपदी के
रूप में
पांच
पांडवों द्वारा
जीत
ली जाती
हो
अमर
हो गयी
राधा तुम
कहकर
बहलाई जाती
हो
अजब
प्रेम भी
मीरा का
जो
विष-प्याला
अधरों से
लगाती
हो
रूपकुवंर
तुम भी
हिस्सा हो
उस
औरत का
ही
मरकर
सती मईया
कहलाती
हो
नशे
में धुत
बेटे ने
मार
दिया कल
माँ को
शायद
बूढी उँगलियाँ
रोटी
जल्दी न
सेंक पाई
थीं
नहीं
दूँगी उदाहरण
की
तुम हवाई
जहाज
उड़ाती
हो
देश
चलती हो
अन्तरिक्ष
परी कहलाती
हो
देखा
था तुमको
पीठ
पर बच्चा
बांधे
आठ
ईंटे सिर
पर
ढोते
हुए
और
अपनी जिद
पर आओ
तो
इरोम
शर्मिला बन
जाती हो
बेटी,बहु, माँ
और
प्रेमिका
बनकर
भारती
हो जीवन
में रंग
शांति
का नोबेल
समेटे
आँचल
में
औरत
कहलाती हो
आम आदमी
बड़ी बड़ी नेम्प्लेटें
चस्पां
हैं बंगलों
में
जिन्हें
तुम पढ़
नहीं पाते
और
बड़े साहब
तक ही
सीमित
रह जाते
हो
कभी
तुम्हें घुसने
नहीं
दिया
जाता
पवित्र
मंदिरों में?
तो
गले में
लटकाकर
लॉकेट
श्रद्धा का
उतने
में ही
खुश हो
जाते हो
ये
साठ फिटा
सड़कें
और
हाईवे तरक्की
के
नहीं
है तुम्हारे
लिए
फिर
भी बनाते
हो
जब
किसी दिन
गुज़रता
है है
काफ़िला
अम्बेसडर
गाड़ियों में
बैठे
किसी
सफेदपोश का
तो
इन्हीं पर
चलने से
रोक
दिए जाते
हो
हजारों
करोड़ रूपये
खर्च
होते हैं
तुम्हारे
ही नाम
की
योजनाओं
में
फिर
क्यूँ दिवाली
छत्तीस
रूपये
में मानते
हो
तुम्हारे
लिए नहीं
पांच
सितारा अस्पताल
इलाज
के लिए
तभी
तो अधमरे
ही
सड़कों
पर फेंक
दिए
जाते
हो
बेघर
कर दिए
जाते हो
बिना
बताये आधी
रात को
तुम्हारे
सपनों पर
चला
दिया जाता
है
बुलडोज़र
फिर
क्यूँ बोलो?
जन
गन मन
अधिनायक
जय हे
राष्ट्रगान
में गाये
जाते हो.
शायद
तुम ही
आम आदमी
कहलाये
जाते हो
मजदूर...
सपने अधूरे ही छोड़
दिए होंगे
तुमने आँखों में
सुबह की रोज़ी-रोटी के
जुगाड़ में
घरबार छोड़कर
परदेशी से बन गए हो
अपने ही देश में
चाँद सिक्कों की तलाश में
घर से संदेशा आया है
खाट लग गयी है
बूढी माँ
और तुम्हारी लाडली
छुटकी बीमार है
पिछले बरस खेत जो
गिरवी रखा था
क़र्ज़ के लिए
साहूकार रोज़ दरवाजे पर
गालियाँ देकर जाता है
अबके बारिश में
ढह गया है छप्पर अहाते का
घरवाली ने मना
कर दिया है
लाल चूड़ियाँ लाने को
घर औरों के बनाते-बनाते
तुम्हारी अपनी गृहस्थी
सिमट गयी है
जूट के बोरों में
जो सज जाया करती है
कहीं भी सड़क किनारे
ईंट के चूल्हे पर
भूख को संकते हो
ज़िन्दगी के तवे पर
फिर मांजते हुए उसे
हाथ रंग जाते हैं
अभावों की कालिख से
अपनी हाड़-तोड़ मेहनत से
खड़े कर देना तुम
ऊंची इमारतें
जगमगाते आलिशान मॉल्स
और संसद में बैठकर
चंद लोग तय कर देंगे
तुम्हारे पसीने की कीमत
महज़ बत्तीस रुपये
किसी हादसे में
सांसे रूठ गयीं अगर
तो आवाज़ नहीं उठा पाउँगा
मुआवज़े के लिए
जो मिलेगा सिर्फ़
कागज़ों पर
इतना मजबूर हूँ मैं
क्योंकि...
मजदूर हूँ मैं
तुम्हें क्या लिखूं?
सागर सी गहरी प्रीत लिखूं
ऊंचे
पर्वत की
ऊँगली थामे
बहती
नदियों का
जीवन
संगीत लिखूं
पथ
से भटका
राही हूँ
यदि
जंगल तुम्हें
बियाबान लिखूं?
प्रातः
की नयी
शुरुआत लिखूं
या
हरी घास
पर आबशार
लिखूं
प्रकृति
के हर
रूप में
तुम
यदि
अमावस की
तुम्हें
काली रात
लिखूं?
हाथों
के कंगन
की
खनकती
आवाज़ लिखूं
या
दर्पण में
अपना
सोलह
श्रृंगार लिखूं
सामने
तुम हो
सोचकर ये
यदि
गालों पर
तुम्हें
सुर्ख़
लाल लिखूं?
घूंघट
की तुमको
ओट लिखूं
या
रेत पर
क़दमों के
निशान लिखूं
मृग-मरीचिका
से लगते
हो
यदि
तपते मरू
में
तुम्हें
नखलिस्तान लिखूं?
मकड़ी
के जाले
सी लिपटी
यादों
का तुम्हें
जंजाल लिखूं
या
टेबल पर
पड़ी पुरानी
डायरी में
रखा
सूखा गुलाब
लिखूं
यदि
ग़ुरबत के
दिनों की
अधजली
रोटी का
तुम्हें
स्वाद लिखूं?
जीवन
की तुमको
आस लिखूं
या
सपनों का
स्वप्निल
आभास
लिखूं
देखो
विस्मृत न
होना तुम
यदि
मरघट का
तुम्हें
विलाप
लिखूं
?
अभी कुछ दिनों पहले ही,
मन पहुँच गया था तुम तक,
बस
यूं ही
बेखयाली में,
शब्द
बनकर बाहर
आ गए
थे,
मेरे
भीतर से
तुम,
अभी
कुछ दिनों
पहले ही.
पाने
से पहले
ही तुम्हें,
खोने
के डर
से,
आँखें
बरसी बहुत
थीं,
बादलों
के संग,
अभी
कुछ दिनों
पहले ही.
वो
दूर बस्ती
की मस्ज़िद
से,
आती
अज़ान सुनी
थी,
नेमत
ख़ूब है
ख़ुदा की,
ये
सोचकर तुम्हें,
माँगा
था दुआ
में,
अभी
कुछ दिनों
पहले ही.
महज़
कल्पना में
जब,
यूं
हो तो,
सामना
हकीक़त से
कैसे होगा,
इसी
सोच में
रोटियां ...
जली
थीं कई,
अभी
कुछ दिनों
पहले ही.
शाखें
पेड़ की
जो,
डूबी
थीं तालाब
में,
पानी
उतर गया
है वापिस..
तुम्हारे
मुझ में
मिलने के
साथ,
अभी
कुछ दिनों
पहले ही,
अभी
कुछ दिनों
पहले.........
कोई नदी न कहे मुझे..
ख़ुद को रोक नहीँ पाती,
कहीँ
भी ठिठककर
खड़ी हो
जाती हूँ,
यूँ
ही अक्सर
नदी देखा
करती हूँ,
कितना
कुछ समेट
लिया है
खुद मेँ,
न
जाने कितने
जीवन,
मुर्दे
औ मरघट,
और
किनारोँ पर
मंदिर,
मस्जिद,गुरुद्वारे।
तेज़
बहाव है
इस वक़्त,
डूबकर
दूर तलक़
बह जाने
की वज़हेँ
भी,
क्या
बाँध सकोगे
मुझको,
पत्थर
व पेड़ोँ
की बेजान
जड़ोँ से,
मौसम
ये बारिश
के,
धार भी
तेज़ है,
और
तली मेँ
बैठी ये
गाद,
तेरे-मेरे
रिश्तोँ की,
शांत
ऐसे ही
छिपे रहना
मेरे भीतर,
उफ़ान
मेरी भावनाओँ
के
जब
कम पड़
जायेँ,
ऊपर
उठ जाया
करना
मुझे
थामने को,
अगर
न बह
पाना संग
मेरे,
रुक
जाना किसी
घाट पर,
जैसे
अटका करती
हैँ लाशेँ,
या
उतराते रहना
जलकुम्भी के
मानिँद,
हर
एक को
दे रखा
है किनारा,
बैठकर
आँसू बहाने
को,
दे
जाये बिना
पूछे कोई
भी
अपने
ग़मोँ की
तिलांजलि,
उफ! तक
नहीँ करती
,
बोझिल होकर
भी बहती
रहती है,
कोई
मुझे नदी
न कहे,
लेकिन
हिस्सा बन
चुकी हो
मेरा,
कल
फिर से
जाना होगा
नदी
किनारे,
नया
श्रिँगार करके
बैठी है
मेरी
ख़ातिर,
पी
लूँगी तुझे
कल,
फिर
तोड़ती रहना
टकराकर
मेरे
मन के
किनारोँ को,
ख़ुद
को रोक
नहीँ पाती
नदी देखने
से.....
पर
कोई मुझे
नदी न
कहे।
क्या हूँ
मै
काँटे की नोक सी चुभती सर्द हवाएँ,
वो
ठंडक के
दिनोँ की
गुनगुनी धूप
हूँ मैँ,
नये
सृजन की
जो नीँव
रखी,
तुम्हारे
घोँसले का
पहला नीड़
हूँ मैँ,
नंगे
पाँव टहलकर
ज़रा महसूस
करना,
मुलायम
घास पर
ओस की
बूँद हूँ
मैँ,
बादल
जब बरसकर
चले कहीँ
और जायेँ,
पारिजात
की कोपलोँ
पर ठहरी
बूँद हूँ
मैँ,
फ़ेरकर
हाथ देखो,
तुम्हारी
ही तस्वीर
पर वक़्त
की धूल
हूँ मैँ,
टेबल
पर पड़ी
पुरानी डायरी
मेँ,
वो
सूखा फूल
हूँ मैँ,
कँपकपाते
होठोँ से
तुम्हारे,
निकला
गीत हूँ
मैँ,
जेठ
की दोपहरी
मेँ,
थोड़ी
सी छाँव
हूँ मैँ,
घाव
दिखते नहीँ
पर,
तुम्हारे
दर्द की
वो पहली
पीर हूँ
मैँ,
और
क्या कहूँ
तुम्हेँ अब?
आँखे
बंद करके
सुनो तो,
तुम्हारी
साँसो की
मद्धम गूँज
हूँ मै
देखो
अब न
कहना तुम.......
कि
कौन हूँ
मै?