Tuesday 29 May 2012

अभिषेक ठाकुर की कवितायेँ


         



आज हम आपको मिलवा रहे हैं युवा कवि अभिषेक ठाकुर से, मूलतः बरेली के रहने वाले अभिषेक भूगोल विषय में परास्नातक हैं! स्वतंत्र लेखन करते हैं!  उनका कहना है....

"मैं एक कतरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है, 
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है....."

- आईये पढ़ते हैं अभिषेक की कुछ प्रेम-कवितायेँ  -

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(1)
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कुछ क्षण चुरा लिए हैं
मैंने अपनी जिंदगी से
पर सिलसिलेवार नहीं रख पाया हूँ
तुम्हें
पहेली की टुकड़ों की तरह
... बंट गया है
तुम्हारा चेहरा उन क्षणों में
तुमसे प्यार पहले हो गया था
और तुम्हारा मिलना
छूट चुका है
कहीं पीछे
अभी तलाश में हूँ
उन क्षणों के
मेरे मोहल्ले के बूढ़े पीपल की तरह
गुजर जाने से इंकार कर चुके है
वो क्षण
रोज नयी यादों
को जन्म दे रहे हैं

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(2)
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हमारे गांवों के बीच
बहती नदी का पुल
इस बार बाढ़
बहा नहीं पाई थी
किनारे पर लगे
... ताड़ के पेड़
अब भी इंतजार में
तुम्हारे स्पर्श के
नदी ने छुपा लिया है
हम दोनों का नाम
जो लिखा था तुमने यूँ ही
उस पेड़ को काट दिया गया है
बैरकों के वास्ते
जो हम दोनों ने मिल कर लगाया था
वो नदी जिसने हमें बड़े होते देखा था
मिट गयी हैं कहीं
और हम दोनों के बीच
आ खड़े हुए हैं दो राष्ट्र

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(3)
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परिधि  

तुम्हें आगोश में समेटकर
अक्सर ही आ जाता है
ख्याल
समय को बांधने और रोक देने को
कोशिश की है बस इस पल में
जी लेने की तुम्हारे साथ
पर तुम में उतर नही पाता कभी
परिधि को छू कर लौट आने की
प्रक्रिया
तुम होती जाती हो मंथर और शांत
बाँट दिया गया है दिन और रात को
बस संध्या के कुछ क्षणों की खातिर
अनंत प्रतीक्षा को स्वीकार कर लिया है दोनों ने
सूरज की तरह अकेले जलने की पीड़ा भोगता मैं
हैरान हो जाता हूँ
जब मेरे ही ताप को ज़ज्ब करके
बरसाया करती हो तुम उन्हें चांदनी रातों मैं
स्वाति की गिरती बूंदों को समेत लेनो दो सीपियो को ही
मुक्त हो जाने दो उन्हें भी
समेटना मत
इस से पहले कि कीमत तय हो मोतियों कि
खो जाने देना उन्हें सागर में
और भावनाओं के पर्वत से उतरते हम
डूब जाएं उन सीपियों के साथ
शिखर से उलट
जहाँ सिर्फ एक के खड़े होने कि जगह हो
हम दोनों बना सकें मिलन कि तस्वीर
सिर्फ हम दोनों के रंगों के साथ
जहाँ अलग अलग होना सिर्फ अपूर्णता हो
और एक होना बना सके एक नयी यात्रा का पथ
और मेरा हाथ थामना
नीली लकीरें न खींच पाए
तुम्हारे हाथों पर

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(4)
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तुमको पाने और
खो देने की संभावनाओं के बीच
तुम और मैं
खो गए हैं कहीं
रोज गढ़ लिया करते हैं
... कुछ नए स्वप्न
यकीन दिलाया करते हैं
खुद को
आगत भविष्य का
जहाँ स्याह रंग की जरुरत न हो
वक़्त की थपकियाँ
सुलाती नहीं
जगा देती हैं अब तो
सूरज बात नहीं करता
बस झांक लिया करता है
रोशनदान के सीखचों से
तुम्हें पाने और
खुद को खो देने की संभावनाओ के बीच
कैक्टस फिर से कहीं बड़ा न हो जाये

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(5)
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असंख्य रातों के जागरण के बाद
बच जाएगी
आँखों में तीरती नींद
और छत पर जाल बुनती
एक मकड़ी
कुछ अधूरे उपहार
जिन्हें जला दिया जाएगा या
फेंक दिया जाएगा घर के
टूटे सामान के साथ
और ख़त बच जायेंगे
शायद
कुछ मार्के की ग़ज़ल
लिखने को
या गर्मी की एक दोपहर को
हलकी बौछार की तरह
खुद को भिगो देने के लिए
या एक बिना रील के कैमरे
से ली गयी कुछ अकेली तसवीरें
और अंत में बच जाएगा
सिर्फ एक मौन
टेबल लैम्प की
आवाज की तरह
और एक
जूठी चाय की प्याली
 
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              प्रस्तुति : अंजू शर्मा
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Monday 7 May 2012

अहर्निश सागर की कविताएं...



आज हम आपको मिलवा रहे हैं युवा कवि अहर्निश सागर से! राजस्थान के रहने वाले अहर्निश की कवितायेँ कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं! अभी हाल में ही जिन युवा कवियों ने ध्यानाकर्षित किया है अहर्निश का नाम उनमें प्रमुखता से उभर कर आता है!


परिचय  -
M L S U विश्वविद्यालय  उदयपुर से BA एवं श्री गंगा नगर से C.M.S & E.D.P की उपाधि रखने वाले अहर्निश सागर की रचनाएँ विभिन्न पत्र पत्रिकाओं मे प्रकाशित होती रहती हैं।  
इनकी कविताओं मे व्यावहारिकता का तत्व आपको कविता के साथ उसका हिस्सा बन कर चलने को प्रेरित करेगा। लेखन का यही मंतव्य होता भी है और लेखन की सार्थकता इसी मे है यदि आम पाठक उससे थोड़ा भी खुद को जुड़ा महसूस करे।

तो आइये चलते हैं इनकी कविताओं की ओर--


(1)


मेरा अस्तित्व दौड़ता हैं
महानगर के फुटपाथ पर
साइकिल लिए मजदूर के उनमान
मैं अनदेखा करता हूँ
गुलमोहर के फूल
मैं अनसुनी करता हूँ
नीलगिरी के पेड़ों से
गुजरती हवा की बौखलाहट
भुला देता हूँ , हर बार
मेरे गुरुर भरे गाल पर पड़ी
डूबते सूरज की थाप
तेरे सपनों की
विषाक्त मवाद सने तलवे
घसीटते हुये जाता हूँ
वासनाओं और तृष्णाओं के
कारखानों की तरफ
तेरी कपोल कल्पनायें
भुला देती हैं मुझे
मेरी हथेलियों के नासूर
और लोहे को जला देता हूँ
उसके पिघलने की हद तक
और तामीर करता हूँ
कुछ सलाखें तेरे इर्द-गिर्द
ताकि तेरे स्वप्न बचे रहे
सत्य के नाखूनों से
इस स्व-विध्वंस में छिपा
मेरा प्रेम हैं कोई साजिश नहीं
तुम पहचान सकोगे, मुमकिन नहीं
फिर भी
मेरे वजूद का अंतिम कतरा तक
लड़ता रहेगा
मैं हार कर भी हारूंगा नहीं
मैं टूट कर भी टूट नहीं सकता
मेरा सर्वस्व शापित हैं
पुरुष होने के लिए .........//



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(2)

बेवजह आ गयी हो छत पर
देख रही हो
दो कपोतों के प्रेमालाप
इस सत्य से बेखबर
समूचा अस्तित्व
साँस लेने लगा है तेरी पुतलियों में
भादो के घन थाह लेकर
रूक गयें हैं तेरी पलकों पर
कोपलें निकल आई हैं
बुड्ढे दरख्तों पर
चिड़ियों के कंठ
गीतों के आवेश से फटने को आतुर

अनहद के रंग-मंच पर
ये कौन सा किरदार तुम निभाती हो ...?

अभी पुकारेगी एक बूढी आवाज़
और सरपट उतर जाओगी सीढियों से

छोड़कर..
आकाश को निरा
बादलों को बेसहारा
अस्तित्व को अधूरा
ये नभ-चर भटक जायेंगे अपना पथ

पुनः शुरू होगी
मेरी अंतहीन तलाश
तुम फिर हो जाओगी अग्गेय
प्रेम के मानिंद............//

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(3)

वो अनाम लड़की
बरसों पहले गयी थी
एक गाँव से ब्याह के
दक्षिण के किसी शहर में
उसे आज भी याद हैं
बचपन की वो सुबह
जब उसके बाबा ने दिये थे
नीले फीतों वाले जूते
और उसकी किलकारियों से
टूट गयी थी , घोसले में
गौरेया के बच्चों की नींद
उस रोज़ ......वो लड़की
चहकती , फुदकती
गिलहरी हो आई थी
नाप आना चाहती थी
पग-पग सारी धरती .../

आज भी वो लड़की
ब्याह की हर सालगिरी पर
टटोलती हैं , सहेलियों के तोहफे
उसमें होते हैं ...
शीशे के दिल
चीनी मिट्टी के ताजमहल
नकली खुशबू वाले गुलदस्ते
तीखी लाल रौशनी वाले लैम्प
पर उसे नहीं मिले कभी
वो...नीले फीतों वाले जूते /
कोई नहीं जानता
क्यों वो लड़की
उबलती चाय छोड़कर
आ जाती हैं, उच़क कर बालकनी में
और कमर के बल झुककर
ढूँढती हैं , गली में खेलते बच्चों के पैरो में
नीले फीतों वाले जूते...
और सहसा अतीत का आसमान
पिघल कर टपकता हैं पलकों से
नहीं, कोई नहीं जान पाया
क्यों वो अनाम लड़की
बार बार लौटना चाहती हैं
इतिहास के खंडहरों में.

क्यों वो चीख पड़ती हैं
जब कोई उलट देता हैं
मेज पर पड़ी रेतघडी..............//

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(4)

अपने शब्दों से खरीद ली थी
कुछ रोटियां
कुछ ज़ज्बात

वो ज़ज्बात
आंसू बन गिरे थे
मेरे काँधे पर,
कमीज के रेशों में कही खो गए.
वो रोटी
हलक से नीचे ना उतर पायी
कितनी बार ...........बनाया
गले को बहरूपिया
तब जाके वो कौर, निगल पाया.

मान बैठा था खुद को रचयिता
कवि, गज़ब का.

बुजुर्गों ने समझाया भी--
सच्चे कवि लिखते नहीं
रचयिता कुछ रचता नहीं.
उस चिलम फूंकते बुड्ढे ने कहा था--
शब्दों के सूअर, समय कसाई हैं
काट देगा.

मुझे याद हैं
भीड़ से हटके खड़े, उस बच्चे की चीख
तालियों की गूंज में
कही खो गयी थी.
लगातार घूरता जा रहा था
अपनी क्षोभ भरी आँखों से मुझे.
उसने फेंका भी था
अपने ज्वर ग्रस्त हाथो से एक पत्थर
मेरी तरफ.

धन्यभाग, मेरी कुर्सी कुछ ऊँची थी
में बच गया.!

आज सालो बाद
जाने कहा से वो पत्थर लग गया.

अपने एहसासों के कन्धों पर
जा रहा हूँ मरघट तक
जलूँगा आज अपने ही वर्कों में

समय कसाई था, मुझे काट दिया
आज ये बोध हुआ,
में फकत शब्द हूँ , कवि नहीं
क्योंकि ....
कवि कभी मरता नहीं //

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(5)

देहों के लिबास बुन बुन कर
सख्त हो जाएगी
कमल के साख सी अंगुलियाँ
पत्थर - सी
दैहिक वासनाओं के कारण
भर उठेंगे कभी तो
काले खून से तेरे स्तन
धोखा देगा तुझे
अपना ही ममत्व , अपनी ही करुणा /

कभी तो आओगी न तुम
खुद से नफरत करती
अपने अहाते में
चटकी कली चंपा की देखने
कभी जब रह जाओगी अकेली
नीरव दुपहरी में, अपने ही घर में
बरामदे में आकर निहारोगी नीला आकाश
तलोशोगी उसमें तुम,
प्रेम के गहरे अर्थ , खो चूका अतीत

जरा सोचो तो ...
इन-इन पलों में
कौन-सी स्मृतियाँ ताजा होगी
कौन-सा चेहरा याद आएगा ..../

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(6)

"मृत्यु - बोध "

साँसों के रेशे जब खोल रहे होंगे
मेरी देह से बंधी अंतिम गाँठ
मेरा मन पकायेगा मेरी देह के चूल्हे पर
सफ़र का अंतिम कलेवा
और तुम भटकोगी प्रेम की गठरी सिर पर लिए
दो देह लिप्त सभ्तायों के बिच, विवश

उस निमिष अंतिम बार सुनूंगा मैं
इन छप्परों पर से गुजरते
परिंदों के झुण्ड का कलरव
और याद आ जायेगा
एक पिली शाम में उड़ता धानी आँचल
विन्ध्य के बियाबानों में खोती
एक आदिम कमंचे की धुन
तेरे लिए चुराकर लाये मकई के हरे भुट्टे
शायद ही मैं याद कर पाऊं जीवन भर के संग्राम
मेरी असफलतायें
रेत के निरर्थक टीलों पर मेरे अहम् का विजयघोष

तुम देखना ...
अविराम मेरी आँखों में
ताकि सुन सको
हमारे प्रणय का अंतिम गीत
और मैं आत्मसात कर पाऊं
विछोह की छाछ पर मक्खन बन उभर आई तेरी अम्लान छवि
शायद वो अंतिम मंथन होगा हमारे सम्बन्धों का
मेरी संततियों....!
जब तुम रो पड़ोगे
आदतन दांतों से नाख़ून कुतरते हुये
मेरी चारपाई का उपरी पायदान पकड़ कर
तब माफ़ कर देना अपने सर्जक को
उसकी अक्षमता को
शायद इस जीवन की निरंतरता का सत्य...
..........इसके अपूर्ण रह जाने में ही हैं
जैसे वादन के बाद विराम
उच्छ्वास के बाद निःश्वास

तुम्हारी मान्यतायें
मुझे मृत घोषित कर देगी देह की परिधियों पर
और मैं भभक कर जी लूँगा
अपनी मौत........................//


प्रस्तुति --यशवन्त माथुर